Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 11
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इसलिये श्री समयसार परमागम का आत्मभूत लक्षण कहना उचित ही है। इसकी रचना की अपनी मौलिक विशेषता है। जहाँ यह श्री समयसार परमागम की प्रत्येक गाथाके गूढ़तम अध्यात्म विषयको एकलोली भावेस आत्मसात् करने में दक्ष हैं वहाँ यह बीच बीच में प्रतिपादित श्री जिनमन्दिरके कलशस्वरूप कलशों द्वारा विषय को साररूप में प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। कलशकाव्यों की रचना आसन्न भव्य जीवोंके हृदय रूपी कुमुद को विकसित करने वाली चन्द्रिका के समान इसी मनोहारिणी शैली का सुपरिणाम है। यह अमृत का निर्झर है ओर इसे निर्झरित करने वाले चन्द्रोपम आचार्य अमृतचंद्र हैं। लोक में जो अमरता प्रदान करनेवाले अमृत की प्रसिद्धि है, जान पड़ता है कि अमृत के निर्झर स्वरूप इस आत्मख्यातिवृत्ति से प्राप्त होनेवाली अमरता को दृष्टि में रखकर ही उक्त ख्याति ने लोक में प्रसिद्धि पाई है। इन्य हैं वे भगवन् कुन्दकुन्द, जिन्होंने समग्र परमागम का दोहन कर श्री समयसार परमागम द्वारा पुरे जिनशासन का दर्शन कराया। और धन्य हैं वे आचार्य अमृतचंद्र , जिन्होंने आत्मख्यातिवृत्ति की रचना कर पुरे जिनशासन का दर्शन कराया। और धन्य हैं वे आचार्य अमृतचंद्र , जिन्होंने आत्मख्यातिवृत्ति की रचना कर पुरे जिनशासनके दर्शन कराने में अपूर्व योगदान प्रदान किया। समयसारकलश बालबोध टीका ----- ऐसे हैं ये दोनों श्री समयसार परमागम और उसके हार्द को सुस्पष्ट करनेवाली आत्मख्यातिवृत्ति। यह अपूर्व योग है कि कविवर राजमल्लजीने परोपदेशपूर्वक या तनयरूप पूर्व संस्कारवश निसर्गतः उनके हार्द को हृदयंगम करके अपने जीवनकाल में प्राप्त विद्वत्ता का सदुपयोग साररूपसे निबद्ध कलशोंकी बालबोध टीकाको लिपिबद्ध करने में किया। यह टीका मोक्षमार्ग के अनुरूप अपने स्वरूप को स्वयं प्रकाशित करती है, इसलिये तो प्रमाण है ही। साथ ही वह जिनागम, गुरु-उपदेश, युक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्षको प्रमाण कर लिखी गई है, इसलिये भी प्रमाण है; क्योंकि जो स्वरूपसे प्रमाण न हो उसमें परतः प्रमाणता नहीं आती ऐसा न्याय है। यद्यपि यह ढूँढारी भाषा में लिखी गई है, फिर भी गद्य काव्य सम्बन्धी शैली और पदलालिप्त आदि सब विशेषताओं से ओत-प्रोत होने के कारण वह भव्यजनों के चित्तको आह्वाद उत्पन्न करने में समर्थ है। वस्तुतः इसकी रचना शैली और पदलालिप्त अपनी विशेषता है। इसकी रचनाओं में कविवर सर्व प्रथम कलशगत अनेक पदोंके समुदायरूप वाक्यको स्वीकार कर आगे उसके प्रत्येक पदका पदगत शब्दका अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका मथितार्थ क्या है वह लिपिबद्ध करनेके अभिप्राय से 'भावार्थ इस्यो' यह लिखकर उस वाक्य में निहित रहस्यको स्पष्ट करते हैं। टीका में यह पद्धति प्रायः सर्वत्र अपनाई गई है। यथा -- Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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