Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 8
________________ रचनाऐं Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी इनका संकेत हम पूर्व में कर आये हैं । परिणाम स्वरूप इन्होंने जिन ग्रन्थोंका प्रणयन किया था टीकाऐं लिखीं वे महत्वपूर्ण हैं। उनका पूरा विवरण तो हमें प्राप्त नहीं, फिर भी इन द्वारा रचित साहित्यमें जो संकेत मिलते हैं उनके अनुसार इन्होंने इन ग्रन्थोंकी रचना की होगी ऐसा ज्ञात होता है। विवरण इसप्रकार है : १। जम्बूस्वामी रचित, २ । पिंगल ग्रंथ - छंदोविद्या, ३। लाटिसंहिता, ४ । अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड, ५। तत्त्वार्थसूत्र टीका, ६ । समयसारकलश बालबोध टीका और ७ । पंचाध्यायी । ये उनकी प्रमुख रचनाएँ या टीका ग्रंथ हैं । यहाँ जो क्रम दिया गया है, संभवतः इसी क्रमसे इन्होंने जनकल्याणहेतु ये रचनाएँ लिपिबद्ध की होगी। संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १। कविवर अपने जीवन काल में अनेक बार मथुरा गये थे। जब वे प्रथम बार मथुरा गये तब तक इनकी विद्वत्ता के साथ कवित्वशक्ति पर्याप्त प्रकाश में आ गई थी । अतएव वहाँ की एक सभा में इनसे जम्बूस्वामीचरितको लिपिबद्ध करने की प्रार्थना की गई। इन ग्रन्थके रचे जाने का यह संक्षिप्त इतिहास है। यह ग्रंथ वि. सं. १६३३ के प्रारम्भ के प्रथम पक्ष में लिखकर पूर्ण हुआ है। इस ग्रंथ की रचना कराने में भटानियाँकोल [ अलिगढ़ ] निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल टोडरसाहु प्रमुख निमित्त हैं। ये वही टोडर साहु हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में मथुराके जैन स्तूपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इनका राजपुरुषोंके साथ अतिनिकटका संबंध [ परिचय ] था। उनमें कृष्णामंगल चौधरी और गढ़मल्ल साहू मुख्य थे। २। इसके बाद पर्यटन करते हुए कविवर कुछ काल के लिये नगौर भी गये थे। वहाँ इनका संपर्क श्रीमालज्ञातीय राजा भारमल्ल से हुआ। ये अपने काल के वैभवशाली प्रमुख राजपुरुष थे इन्हीं की सत्य प्रेरणा पाकर कविवर ने पिंगल ग्रंथ - छंदोविद्या ग्रन्थका निर्माण किया था। यह ग्रंथ प्राकृत,संस्कृत, अपभ्रंश और तत्कालीन हिन्दीका सम्मिलित नमुना है। ३। तीसरा ग्रंथ लाटीसंहिता है । मुख्यरूपसे इसका प्रतिपाद्य विषय श्रावकाचार है। जैसे कि मैं पूर्वमें निर्देश कर आया हूँ कि ये भट्टारक परम्परा के प्रमुख विद्वान् थे। यही कारण है कि इनमें भट्टारकों द्वारा प्रचारित परम्पराके अनुरूप श्रावकाचार का विवेचन प्रमुखरूपसे हुआ है । २८ मूलगुणोंमें जो षडावश्यक कर्म हैं, पूर्वकालमें व्रती श्रावकोंके लिये वे ही षडावश्यक कर्म देश व्रतके रूपमें स्वीकृत थे। उनमें दूसरे कर्मका नाम चतुर्विशतिस्तव और तीसरा कर्म वन्दना है। वर्तमान कालमें जो दर्शन-पूजनविधि प्रचलित है, यह उन्हीं दो आवश्यक कर्मोंका रूपान्तर है। मूलाचरमें वन्दनाके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद दृष्टिगोचर होते हैं । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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