Book Title: Samaysara Kalash Author(s): Amrutchandracharya, Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust View full book textPage 7
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates टीका और टीकाकार कविवर राजमल्ल जी राजस्थान के जिन प्रमुख विद्वानोंने आत्म-साधना के अनुरूप साहित्य आराधना को अपना जीवन अर्पित किया है उनमें कविवर राजमल्लजी का नाम विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। इनका प्रमुख निवासस्थान ढुढाहढ़ प्रदेश और मातृभाषा ढूँढारी रही है। संस्कृत और प्राकृत भाषा के भी वे उच्चकोटी के विद्वान् थे। सरल बोधगम्य भाषा में कविता करना इनका सहज गुण था। इन द्वारा रचित साहित्यके अवलोकन करने से विदित होता है कि वे स्वयं को इस गुण के कारण 'कवि' द्वारा संबोधित करना अधिक पसन्द करते थे। कविवर बनारसीदास जी ने इन्हें 'पाँडे' पद द्वारा भी सम्बोधित किया है। जान पड़ता है कि भट्टारकोंके कृपापात्र होनेके कारण ये या तो गृहस्थाचार्य के विद्वान थे, क्योंकि आगरा के आसपास क्रियाकॉड वाले व्यक्तिको आज भी ‘पाँडे' कहा जाता है। या फिर अध्ययन-अध्यापन और उपदेश देना ही इनका मुख्य कार्य था। जो कुछ भी हो, थे ये अपने समयके मेघावी विद्वान् कवि। जान पड़ता है कि इनका स्थायी कार्यक्षेत्र वैराट नगरका पार्श्वनाथ जिनालय रहा है। साथ ही कुछ ऐसे भी तथ्य उपलब्ध हुए हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि ये बीच बीच में आगरा, मथुरा और नगौर आदि नगरों में भी न केवल अपना सम्पर्क बनाये हुए थे। बल्कि उन नगरों में आतेजाते रहते थे। इसमें संदेह नहीं कि ये अति ही उदाराशय परोपकारी विद्वान् कवि थे। आत्मकल्याण के साथ इनके चित्त में जनकल्याणकी भावना सतत् जागृत रहती थी। एक ओर विशुद्धतर परिणाम और दूसरी ओर समीचीन सर्वोपकारिणी बुद्धि इन दो गुणों का सुमेल इनके बौद्धिक जीवन की सर्वोपरि विशेषता है। साहित्यिक जगत में वही इनकी सफलता का बीज है। वे व्याकरण, छन्द शास्त्र, स्याद्वाद विद्या आदि सभी विद्याओं में पारंगत थे। और अध्यात्मका तो इन्होंने तलस्पर्शी गहन परिशीलन किया था। भगवन कुन्दकुन्द रचित समयसार और प्रवचन सार प्रभृति प्रमुख ग्रन्थ इनके कण्ठस्थ थे। इन ग्रन्थों में प्रतिपादित अध्यात्म तत्वके आधारसे जनमानसका निर्माण हो इस सद्भिप्राय से प्रेरित होकर इन्होंने मारवाड़ और मेवाड़ प्रदेशको अपना प्रमुख कायै क्षेत्र बनाया था। जहाँ भी ये जाते, सर्वत्र इनका सोत्साह स्वागत होता था। उत्तरकाल में अध्यात्म के चतुर्मुखी प्रचारमें इनकी साहित्यिक व अन्य प्रकार की सेवाऐं विशेष कारगर सिद्ध हुई। कविवर बनारसीदास जी वि . १७ वीं • शताब्दीके प्रमुख विद्धान् हैं। जान पड़ता है कि कविवर राजमल्लजी ने उनसे कुछ ही काल पूर्व इस वसुधाको अलंकृत किया होगा। अध्यात्म गंगा को प्रवाहित करनेवाले इन दोनों मनीषियोंका साक्षात्कार हुआ है ऐसा तो नहीं जान पड़ता, किन्तु इन द्वारा रचित जम्बूस्वामीरचित और कविवर बनारसीदासजी की प्रमुख कृति अर्द्ध कथानकके अवलोकन से यह अवश्य ही ज्ञात होता है कि इनके इह लीला समाप्त करने के पूर्व ही कविवर बनारसीदास जी का जन्म हो चुका था। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.comPage Navigation
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