Book Title: Samaysara Kalash Author(s): Amrutchandracharya, Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust View full book textPage 5
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates - INH हेतोपदेश श्री समयसाराय नमः। प्रकाशकीय निवेदन सर्वज्ञ वीतराग कथित निर्मल तत्वज्ञान के गूढ़ रहस्योंको अत्यन्त सुगम और सुबोध शैलीसे प्रकाश करनेवाले जैनधर्मके मर्मी पं० श्री राजमल्लजी कृत श्री समयसार कलश टीकाका राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अनुवाद प्रकाशित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता होती है। भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यने श्री समयसार परमागमकी रचना की, उसपर श्री अमृतचन्द्राचार्य देवने 'आत्मख्याति' टीका लिखी। उसे पढ़ते हुए परमार्थ तत्वका मधुर रसास्वाद लेनेवाले धर्म जिज्ञासुओंके चित्तमें निस्सन्देह आत्माकी अपार महिमा आती है, क्योंकि उन्होंने रोंका हार्द खोलकर श्री आत्मख्याति टीकामें भर दिया है। उसमें आगम, युक्ति, गुरुपरम्परा और स्वानुभव द्वारा आचार्य देवने परम अद्भुत ज्ञाननिधानको निस्संकोचतया प्रकट किया है। साथ ही उन्होंने (जिनमन्दिरके शिखरके स्वर्ण कलश समान) आध्यात्मरस भरपूर कलशोंकी भी रचना की है। आत्मसंचेतनका निर्मल रसास्वाद लेनेवाले पं० श्री राजमल्लजीने ढूंढारी भाषामें उन्हीं कलशों पर यह टीका लिखी है। यह टीका अपनेमें इतनी मैलिक है कि इसके आधारसे अध्यात्मरसिक श्री बनारसीदासजीने नाटक समयसार की रचना की है। यह कलश टीका पं० श्री राजमल्लजीकी स्वतंत्र रचना है। प्रत्येक श्लोककी टीकामें उन्होंने अपूर्व अर्थका उद्घाटन किया है। परमोपकारी पू० श्री कानजी स्वामी उसके उस अपूर्व अर्थको उद्घाटित करते हुए भूरि-भूरि आनन्दका अनुभव करते हैं। पूज्य श्री ने इस ग्रन्थका अनेक बार स्वाध्याय किया है। पुज्य श्री की भावना थी कि यह ग्रन्थ वर्तमान हिन्दी भाषामें अनुदित होकर प्रकाशित हो। साथही उसमें अत्मानुभूतिका जो स्पष्टरूपसे कथन आया है उसे वे श्रोताओंके समक्ष रखने लगे। फल स्वरूपजैन समाजमें उसके प्रचार-प्रसारकी भावना बढ़ने लगी। वी० सं० १९५७ में स्व० श्री ब्रह्म० शीतलप्रसादजी द्वारा इस ग्रन्थका संपादन होकर श्री मूलचन्द किसनदास जी कापड़िया सूरत द्वारा प्रकाशन हुआ। श्री ब्रह्मचारीजी ने अनेक हस्तलिखित प्रतियोंका मिलानकर परिश्रम पूर्वक इस ग्रन्थका संपादन किया था। यह अनुवाद उस मुद्रित ग्रन्थके आधारसे किया गया है, इसलिए हम उनके आभारी हैं। मूलग्रन्थकी भाषा बहुत पुरानी ढूंढारी होनेसे पढ़नेवालों को कई शद्वोंका अर्थ बराबर समझमें न आनेके कारण जितना रसा स्वाद आना चाहिये उतना नहीं आ पाता था, अतः वर्तमान हिन्दी भाषामें उसे परिवर्तित कर देने का विशेष अनुरोध पं० श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीसे किया गया। मुद्रित प्रतिमें छूटे हुए स्थलोंका संशोधन करनेके लिए दो हस्तलिखित प्रतियाँ भी उनके पास भेजी गई। प्रथम हस्तलिखित प्रति अंकलेश्वर दि० जैन समाजसे प्राप्त हुई और दूसरी हस्तलिखित प्रति सागर निवासी श्रीमान सेठ भगवानदासजी शोभालालजी से प्राप्त हुई। पंडितजीने उन प्रतियोंसे मुद्रित प्रतिका अच्छी तरह मिलानकर वर्तमान हिन्दी भाषामें अनुवाद किया है। अनुवादमें मूलका भाव पूरी तरहसे आजाय इस अभिप्रायसे उसका श्री कानजी स्वामीके सानिध्यमें पं० श्री हिम्मतलाल भाई, माननीय श्री रामजी भाई, श्रीमान खेमचन्द भाई, ब्र० श्री चन्दू भाई आदि सात आठ भाइयोंने बैठकर कई दिनों तक सावधानीके साथ वाचन किया। इस वाचनमें पं० श्रीराजमल्लजीके कथनके भावोंका पूरा संरक्षण हो इस बातका पूरा ध्यान रखा गया और इसी बातको ध्यानमें रखकर हिन्दी अनुवादका संशोधनभी किया गया। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.comPage Navigation
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