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सामायिक की शुद्धि
धर्म-स्थान मे ही घटित हो सकती है, अत धर्म-स्थान उपाश्रय कहलाता है । तीसरी व्युत्पत्ति है- 'उप = समीप मे ग्राश्रय= स्थान ।' अर्थात् जहा आत्मा अपने विशुद्ध भावो के पास पहुँच कर प्रश्रय ले, वह स्थान । भाव यह है कि उपाश्रय मे बाहर की सासारिक गडबड कम होती है, चारो ओर की प्रकृति शात होती है, एकमात्र धार्मिक वातावरण की महिमा ही सम्मुख रहती है, ग्रत सर्वथा एकान्त, निरामय, निरुपद्रव एव कायिक, वाचिक, मानसिक क्षोभ से रहित उपाश्रय सामायिक के लिए उपयुक्त माना गया है । यदि घर मे भी ऐसा ही कोई एकान्त स्थान हो, तो वहा पर भी सामायिक की जा सकती है । शास्त्रकार का अभिप्राय शान्त और एकान्त स्थान से है, फिर वह कही भी मिले ।
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(३) काल-शुद्धि - काल का अर्थ समय है, अत योग्य समय का विचार रखकर जो सामायिक की जाती है, वही सामायिक निर्विघ्न तथा शुद्ध होती है । बहुत से सज्जन समय की उचितता अथवा अनुचितता का विल्कुल विचार नही करते । यो ही जब जी चाहा, तभी प्रयोग्य समय पर सामायिक करने बैठ जाते हैं । फल यह होता है कि सामायिक मे मन शान्त नही रहता, अनेक प्रकार के सकल्प-विकल्पो का प्रवाह मस्तिष्क मे तूफान खडा कर देता है । फलत सामायिक की साधना गुड-गोबर हो जाती है ।
सेवा महान् धर्म है
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आजकल एक बुरी धारणा चल रही है । यदि घर मे कभी कोई बीमार हो, और दूसरा कोई सेवा करने वाला न हो, तब भी बीमार की सेवा को छोड कर लोग सामायिक करने बैठ जाते है । यह प्रथा उचित नही है । इस प्रकार सामायिक का महत्व घटता है, दूसरो पर बुरी छाप पडती है । वह काल सेवा का है, सामायिक का नही । शास्त्रकार कहते है -
'काले काल समायरे'
- दशवैकालिक ५।२।४