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सामायिक सूत्र
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चला ग्राया है, वह हम मनुष्यो को अपना क्या आदर्श सिखा सकता है ? उसके जीवन पर से, उसके व्यक्तित्व पर से हमे क्या कुछ लेने लायक मिल सकता है ? हम मनुष्यो के लिए तो वही ग्राराध्यदेव चाहिए, जो कभी मनुष्य ही रहा हो, हमारे समान ही ससार के सुख-दुख से एव मोह-माया से सत्रस्त रहा हो, और वाद मे अपने अनुभव एव ग्राध्यात्मिक जागरण के बल से ससार के समस्त सुख भोगो को दुखमय जानकर तथा प्राप्त राज्य-वैभव को ठुकरा कर निर्वाण पद का पूर्ण व दृढ साधक बना हो, सदा के लिए कर्म-बन्धनो से मुक्त होकर ग्रपने मोक्ष स्वरूप प्रतिम लक्ष्य पर पहुँचा हो । जैन धर्म के तीर्थ कर एव जिन इसी श्रेणी के साधक थे । वे कुछ प्रारम्भ से ही देव न थे, अलौकिक न थे । वे भी हमारी ही तरह एक दिन इस संसार के पामर प्राणी थे, परन्तु अपनी अध्यात्म-साधना के बल पर ग्रन्त मे शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एव विश्ववद्य हो गए थे । प्राचीन धर्म - शास्त्रो मे आज भी उनके उत्थान - पतन के अनेक कडवे-मीठे अनुभव एव धर्म - साधना के क्रम-वद्ध चरण-चिह्न मिल रहे हैं, जिन पर यथा - साध्य चल कर हर कोई साधक अपना आत्म-कल्याण कर सकता है । तीर्थ करो का आदर्श साधक जीवन के लिए क्रमवद्ध अभ्युदय एव निश्रेयस का रेखाचित्र उपस्थित करता है ।
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पूजा: और पुष्प
"महिया' का अर्थ महित - पूजित होता है । इस पर विवाद करने की कोई बात नही है । सभी वन्दनीय पुरुष, हमारे पूज्य होते है । प्राचार्य पूज्य है, उपाध्याय पूज्य है, साधु पूज्य है, भिर भला तीर्थंकर क्यो न पूज्य होगे । उनसे बढकर तो पूज्य कोई हो ही नही
सकता ।
पूजा का अर्थ है, सत्कार एव सम्मान करना । वर्तमान पूजा आदि के शाब्दिक संघर्ष से पूर्व होने वाले ग्राचार्यों ने ही पूजा के दो भेद किए है द्रव्य - पूजा श्रौर भाव-पूजा । शरीर और वचन को वाह्य विपयो से सकाच कर प्रभु-वन्दना में नियुक्त करना, द्रव्य-पूजा है और मन को भी वाह्य भोगासक्ति से हटाकर प्रभु के चरणो मे अर्पण