Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 338
________________ ३१८ समायिक-सूत्र शुभाशुभ फल वह प्राप्त करता है। यदि कभी दूसरे का दिया हुआ फल प्राप्त होने लगे, तो फिर निश्चय ही अपना किया हुअा कर्म निरर्थक हो जाए। निजाजित कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किचन । विचारयन्नेवमनन्य—मानसः, परो ददातीति विमु च शेमुषोम् ।।३१।। -ससारी जीव अपने ही कृत-कर्मों का फल पाते है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। हे भद्र ! तुझे यही विचारना चाहिए। और अनन्यमन यानी अचचल चित्त होकर 'दूसरा कुछ देता है'--यह बुद्धि छोड देनी चाहिए। यैः परमात्माऽमितगतिवन्धः, सर्व-विविक्तो भृशमनवद्यः । शश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेत विभववरं ते ॥३२॥ -जो भव्य प्राणी अपार ज्ञान के धर्ता अमितगति गणधरो से वन्दनीय, सब प्रकार की कर्मोपाधि से रहित, और अतीव प्रशस्य परमात्म-रूप का अपने मन मे निरन्तर ध्यान करते है, वे मोक्ष की सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी को प्राप्त करते है। विशेष यह सामायिक-पाठ आचार्य अमितगति का रचा हुआ है। प्राचार्य ने आध्यात्मिक भावनायो का कितना सुन्दर चित्रण किया है, यह हरेक सहृदय पाठक भली भाँति जान सकता है । आजकल दिगम्बर जैन-परम्परा मे इसी पाठ के द्वारा सामायिक की जाती है। दिगम्वर-परम्परा मे सामायिक के लिए कोई विशेष विधान नही है । केवल इतना ही कहा जाता है कि एकान्त स्थान में पूर्व या उत्तर को मुख करके दोनो हाथो को लटका कर जिन-मुद्रा से खड़े हो जाना चाहिए। और मन मे यह नियम लेना चाहिए कि जब

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