Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 337
________________ समायिक पाठ ३१५ विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्ट मिद विविक्तम् । शुद्ध शिव शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्य ॥२०॥ -जिसके ज्ञान मे सम्पूर्ण विश्व अलग-अलग रूप मे स्पष्टतया प्रतिभासित होता है, और जो शुद्ध है, शिव है, शान्त है, अनादि है, अनन्त है, उस प्राप्त देव की शरण मैं स्वीकार करता हूँ। येन क्षता मन्मथ-मान-मूर्छा, विषाद-निद्रा-भय-शोक-चिन्ता । क्षय्योऽनलेनेव तरू-प्रपञ्चस् त देवमाप्त शरणं प्रपद्य ॥२१॥ -जिस प्रकार दावानल वृक्षो के समूह को भस्म कर डालता है, उसी प्रकार जिसने काम, मान, मूर्छा, विषाद, निद्रा, भय, शोक और चिन्ता को नष्ट कर डाला है, उस प्राप्त देव की शरण मैं स्वीकार करता हूँ। न संस्तरोऽश्मा न तृरणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः । यतो निरस्ताक्षकषाय-विद्विषः, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः॥२२॥ -सामायिक के लिए विधान के रूप मे न तो पत्थर की शिला को आसन माना है, और न तृण, पृथ्वी, काष्ठ आदि को । निश्चय दृष्टि के विद्वानो ने उस निर्मल प्रात्मा को ही सामायिक का आसन आधार माना है, जिसने अपने इन्द्रिय और कषाय-रूपी शत्र प्रो को पराजित कर दिया है। न संस्तरो भद्र ! समाधिसाधन, न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिश, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ॥२३॥

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