Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 331
________________ सामायिक पाठ चारित्र शुद्ध र्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृत प्रभो ! ॥६॥ - हे प्रभो । मैं दुर्बुद्धि हूँ, मोक्षमार्ग से प्रतिकूल चलने व हूँ, अतएव चार कषाय और पाँच इन्द्रियो के वश में होकर मैंने कुछ भी अपने चारित्र की शुद्धि का लोप किया हो, वह सब दुष्कृत मिथ्या हो ! विनिन्दनालोचन—गर्हरह, मनोवचः काय -- कषायनिमितम् । निहन्मि पाप भवदु.खकारणं, भिषग् विष मंत्रगुणैरिवाखिलम् ॥७॥ - मन, वचन, शरीर एव कषायो के द्वारा जो कुछ भी ससार दुःख का कारणभूत पापाचरण किया गया हो, उस सब को नि आलोचना और गर्दा के द्वारा उसी प्रकार नष्ट करता हूँ, जिस प्रक कुशल वैद्य मत्र के द्वारा अग अग मे व्याप्त समस्त विष को दूर देता है ! अतिक्रम यं विमतेर्व्यतिक्रम, जिनातिचार सुचरित्रकर्मणः । व्यधामनाचारमपि प्रमादतः, प्रतिक्रम तस्य करोमि शुद्धये ॥८॥ हे जिनेश्वर देव । मैंने विकार-बुद्धि से प्रेरित होकर शुद्ध चारित्र मे जो भी प्रमाद वश प्रतिक्रम, व्यतिक्रम, प्रतिचार अं प्रनाचार रूप दोष लगाए हो, उन सव की शुद्धि के लिए प्रतिक्रम करता हूँ 1 क्षति मन. शुद्धिविधेरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलवृतेविलङ्घनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तन, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥६॥ - हे प्रभो ! मन की शुद्धि मे क्षति होना प्रतिक्रम है, शील-वृ

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