Book Title: Samayik Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 330
________________ ३१० सामायिक-सूत्र सम्पन्न है, और सम्पूर्ण दोषो से रहित होने के कारण निर्दोष वीतराग दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्ग, योगे वियोगे भवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्व-बुद्ध, सम मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ॥३॥ -हे नाथ । ससार की समस्त ममता-बुद्धि को दूर करके मेरा मन सदा काल दु ख मे, सुख मे, शो मे, बन्धुप्रो मे, सयोग मे, वियोग मे, घर मे, वन मे सर्वत्र राग-द्वेष की परिणति को छोडकर सम बन जाए! मुनीश ! लीनाविव कीलिताविव, स्थिरौ निखाताविव बिम्विताविव । पादौ त्वदीयो मम तिष्ठतां सदा, तमो धुनानौ हृदि दीपकाविव ॥४॥ -हे मुनीन्द्र । अज्ञान अन्धकार को दूर करने वाले आपके चरणकमल दीपक के समान है, अतएव मेरे हृदय मे इस प्रकार बसे रहे, मानो हृदय मे लीन होगए हो, कील की तरह गड गए हो, वैठ गए, हो, या प्रतिबिम्बित हो गए हो । एकेन्द्रियाद्या यदि देव ! देहिनः, प्रमादतः सचरता इतस्ततः। क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडितास् तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ -हे जिनेन्द्र | इधर उधर प्रमादपूर्वक चलते-फिरते मेरे से यदि एकेन्द्रिय प्रादि प्राणी नष्ट हुए हो, टुकड़े किये गए हो, निर्दयतापूर्वक मिला दिए गए हो, कि बहुना, किसी भी प्रकार से दुखित किए हो, तो वह सव दुष्ट आचरण मिथ्या हो । विमुक्तिमार्ग-प्रतिकूल-वतिना, मया कषायाक्षवशेन दुधिया।

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