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आत्मा ही सामायिक है
रोके रखने भर से सामायिक की पूर्णता होती नही । प्रत आजकल की सामायिक-क्रिया तो एक प्रकार से व्यर्थं ही हुई
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इसके उत्तर मे कहना है कि निश्चय सामायिक के स्वरूप का वर्णन करके उस पर जोर देने का यह भाव नही कि अन्तरंग साधना अच्छी तरह नही होती है, तो बाह्य सावना भी छोड़ ही दी जाए बाह्य साधना, भी आन्तरिक साधना के लिए अतीव आवश्यक है । सर्वथा शुद्ध निश्चय सामायिक तो साध्य है, उसकी प्राप्ति शुद्ध व्यवहार साधना करते-करते ग्राज नही, तो कालान्तर मे कभी-नकभी होगी ही । मार्ग पर एक-एक कदम बढने वाला दुर्बल यात्री भी एक दिन अपनी मंजिल पर पहुच जाएगा । अभ्यास की शक्ति महान् है । आप चाहे कि मन भर का पत्थर हम ग्राज ही उठा ले शक्य है । किन्तु प्रतिदिन क्रमश सेर दो-सेर, तीन सेर ग्रादि का पत्थर उठाते-उठाते, कभी एक दिन वह भी आएगा कि जब प्राप मन-भर का पत्थर भी उठा लेगे ।
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अब रही मन की चचलता । सो, इससे भी घबराने की आवश्यकता नही । मन स्थिर न भी हो, तब भी आप टोटे मे नही रहेगे । वचन और शरीर के नियत्रण का लाभ तो आपका कही नही गया । सामायिक का सर्वथा नाश मन, वचन और शरीर तीनो शक्तियो को सावद्य - क्रिया मे सलग्न कर देने से होता है । केवल मनसा भग अतिचार होता है, अनाचार नही । अतिचार का अर्थ- 'दोष' है । और इस दोष की शुद्धि पश्चात्ताप एव आलोचना आदि से हो जाती है ।
क्या
हाँ, तो यह ठीक है कि मानसिक शाति के बिना सामायिक पूर्ण नही, अपूर्ण है । परन्तु इसका यह अर्थ तो नही कि पूर्ण न मिले, तो अपूर्ण को भी ठोकर मार दी जाए ? व्यापार मे हजार का लाभ न हो, तो सौ, दो सौ का लाभ कही छोड़ा जाता है ? आखिर है तो लाभ ही, हानि तो नही ! जब तक रहने के लिए सातमजिल का महल न मिले, तब तक झोपडी ही सही । सर्दी-गर्मी से तो रक्षा होगी, कभी परिश्रमानुकूल भाग्य ने साथ दिया, तो महल भी कौन बडी चीज है, वह भी मिल सकता है । परन्तु, महल के अभाव मे झोपडी छोडकर सडक पर भिखारियो की तरह पडे रहना तो ठीक नही । अपने ग्राप मे व्यवहार सामायिक