Book Title: Samadhan
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र: प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, बहुत महीनों के बाद । वैसे तो अभी इन दिनों में मैं ज्यादा व्यस्त हूँ। प्रत्युत्तर विलंब से लिखता, परंतु तेरे प्रश्न ने ही तूर्त प्रत्युत्तर लिखने के लिए प्रेरित किया। यह है तेरा प्रश्नः 'मैं हमेशा अशांत रहता हूँ। हृदय में असह्य वेदना है। कभी-कभी चंचलचित्त हो, आत्महत्या करने की बात गंभीरता से सोचने लगता हूँ। गुरुदेव, मैं नहीं जानता, क्यों होता है यह सब?' चेतन, यह प्रश्न तेरे मन का है और मन का समाधान होना ही चाहिए। मन का समाधान करना अनिवार्य होता है। तू स्वयं तेरे मन का समाधान नहीं कर पाता है और इसी वजह से ही तूने यह पत्र लिखा है। ___ जो प्रश्न पूछा है तूने, यह प्रश्न तेरे अकेले का नहीं है, यह प्रश्न हज़ारोंलाखों मनुष्यों का है। जो मनुष्य अपने मन का समाधान नहीं कर पाते हैं वे सभी मनुष्य अशांत होते हैं। उनके मन की समस्याएँ बनी रहती हैं, समस्या से अशांति पैदा होती है। समाधान से शांति प्राप्त होती है। समाधान वास्तविक होना चाहिए | असत् कल्पना से किया हुआ समाधान, नई समस्या को जन्म देता है। एक महिला का पति श्रमण-अणगार बन गया और गाँव छोड़ कर चला गया। महिला गर्भवती थी। नौ महीने पूर्ण होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जब चार-पाँच वर्ष का हुआ, उसने अपनी माँ से पूछाः 'मेरे पिताजी कहाँ गए हैं?' माँ ने जवाब दियाः 'बेटा, तेरे पिताजी परदेश गए हैं। जब वे आएँगे बहुत रुपयें लेकर आएँगे.. तेरे लिए बहुत सारे खिलौने लेकर आएँगे।' बच्चे के मन का समाधान हो गया। परंतु यह समाधान असत् था, काल्पनिक था। बहुत समय यह समाधान नहीं टिका | बच्चे को एक दिन माँ की बात में संदेह पैदा हुआ। आख़िर माँ को सही बात कहनी पड़ी... बच्चे के मन का समाधान हुआ... और वह अपने साधु-पिता के पास जा कर साधु बन गया । For Private And Personal Use Only

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