Book Title: Samadhan Author(s): Bhadraguptasuri Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेतन, दूसरों के प्रश्नों का समाधान कभी असत् कल्पना से भी किया जा सकता है, परंतु स्वयं के मन का समाधान तो वास्तविक बात से ही किया जा सकता है। असत् कल्पना से अपने मन को समझाया नहीं जा सकता है। कभी कोई अज्ञानी मनुष्य समझाता भी है, वह समाधान क्षणिक सिद्ध होता है। समाधान क्षणिक नहीं होना चाहिए। समाधान शाश्वत होना चाहिए। शाश्वत समाधान करने के लिए मनुष्य के पास कुछ ज्ञान होना चाहिए। विश्व के शाश्वत नियमों का ज्ञान होना चाहिए। __ शाश्वत सिद्धांतों से जब समाधान होता है मन का, तब मन को अशांत अस्वस्थ करने वाले क्रोध, शंका, तृष्णा, अपेक्षा वगैरह दोष दूर हो जाते है। मन शांत और स्वस्थ बन जाता है। चेतन, ऐसा मत समझना कि संसार के रागी-द्वेषी मनुष्य ही अशांत-अस्वस्थ बनते हैं, कभी-कभी संसारविरक्त, वैरागी और ज्ञानी-पुरुष भी अशांत बन जाते हैं। श्रमण भगवान महावीरस्वामी के अपने तपस्वी और महाध्यानी शिष्य की एक घटना लिखता हूँ। श्रमण भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी में पधारे थे। वहाँ गोशालक भी आता है। गोशालक ने सर्वप्रथम भगवान का ही शिष्यत्व स्वीकारा था, बाद में वह अष्टांग निमित्त का ज्ञान और तेजोलेश्या का ज्ञान पा कर, भगवान से अलग विचरता था और स्वयं को 'जिन' कहलाता था। उस गोशालक ने भगवान के प्रति तीव्र रोष धारण कर, भगवान के ऊपर 'तेजोलेश्या' छोड़ दी। हालाँकि भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर तेजोलेश्या गोशालक के ही शरीर में प्रविष्ट हो गई... परंतु तेजोलेश्या की तीव्र गर्मी से भगवान के शरीर की कांति म्लान हो गई और भगवान को खून की दस्ते लगी। __उस समय भगवान के शिष्य सिंह अणगार, जो कि सरल प्रकृति के थे और अत्यंत विनीत थे, वे मालुयाकच्छ के पास निरंतर घोर तपश्चर्या करते हुए ध्यान में निमग्न थे। ध्यान करते-करते उनको ऐसा प्रतिभास हुआ कि 'मेरे भगवान के शरीर में भयानक रोग उत्पन्न हुआ है।' वे बेचैन हो गए। वे आतापनाभूमि से चलकर मालुयाकच्छ में आए और रुदन करने लगे। सिंह जैसे सिंह अणगार के मन में अशांति पैदा हो गई! प्रश्न पैदा हो गयाः 'तीर्थंकर के शरीर में रोग? क्या होगा मेरे भगवंत को?' समाधान की आवश्यकता पैदा हो गई। For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 292