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उसके पास चक्र-दंड वगैरह साधन होते हैं तब वह घड़ा बना सकता है। अशरीरी ईश्वर सृष्टि क्या, एक शरीर की भी रचना नहीं कर सकता है।
'भगवंत, ईश्वर को शरीरधारी मान लें, फिर कर्मों का अस्तित्व क्यों माने?'
'महानुभाव, तू वेदों को जानता है। ईश्वर ने अपना शरीर सकर्मा होकर बनाया या अकर्मा होकर? अकर्मा ईश्वर शरीर रचना नहीं कर सकता! उपकरण के बिना, साधन के बिना कार्य हो नहीं सकता है। यदि तू कहता है: सकर्मा ईश्वर ने अपना शरीर बनाया, तो कर्म का अस्तित्व मान ही लिया! तो फिर कर्मबद्ध जीव स्वयं अपना शरीर बनाता है, यह मानना ही उपयुक्त होता है। और, तू जो कहता है कि 'सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है, यह भी बात उचित नहीं है। ईश्वर क्यों सृष्टि की रचना करेगा?' __ 'प्रभो, ईश्वर को इच्छा हुई कि 'मैं अकेला हूँ... अनेक हो जाऊँ!' ‘एकोऽहं बहु स्याम्' और अनेक होने के लिए सृष्टि पैदा की!' ___ 'अग्निभूति, इच्छा होना अपूर्णता की निशानी है। अपूर्ण आत्मा को ही इच्छा होती है। क्या तू ईश्वर को अपूर्ण मानता है? यदि तू मानता है ईश्वर को अपूर्ण, तो अपूर्ण असर्वज्ञ ईश्वर की रचना दोषपूर्ण होगी!'
'प्रभो, हम ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानते हैं!
'सर्वशक्तिमान व्यक्ति, क्या दोषपूर्ण सृष्टि की रचना करेगा? उसकी रचना सर्वांगसंपूर्ण और सुखभरपूर होनी चाहिए। सृष्टि में ज्यादा जीव दुःखी है।'
'भगवंत, जो पाप करता है उसको ईश्वर सज़ा करता है और जो धर्म करता है उस पर कृपा करता है।' _ 'परंतु हे अग्निभूति, जीव को पाप क्यों करने देता है ईश्वर? क्या रोक नहीं सकता है, पाप करते हुए जीव को? पाप करने देता है और फिर सज़ा करता है, यह तो अनुचित है। और, तू ईश्वर को 'अनादि शुद्ध' मानता है न?'
'हाँ प्रभो!' _ 'अनादि शुद्ध का अर्थ होता है रागरहित और द्वेषरहित । जो रागरहित होता है उसको इच्छा नहीं होती है। इच्छा, बिना राग हो ही नहीं सकती है! शुद्धात्मा को राग नहीं होता, इसलिए इच्छा नहीं हो सकती। इच्छा नहीं तो सृष्टिरचना नहीं!
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