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‘हाँ प्रभो!' ‘मैंने राज्य वैभव को दुःख का कारण मान कर, उसको त्याग दिया! वैसे, ज़हर दुःख का कारण मानता है न? परंतु औषध के रूप में वही ज़हर सुख का कारण बनता है ! इसलिए कहता हूँ कि सुख-दुःख के असाधारण कारण 'कर्म' हैं, पुण्य कर्म और पाप कर्म ।
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अग्निभूति, अब मैं दूसरा तर्क बताता हूँ कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए। वृद्ध शरीर के पूर्व युवा शरीर होता है, युवा शरीर के पूर्व बाल शरीर होता है... तो बाल शरीर के पूर्व भी कोई शरीर होना चाहिए न ? वह होता है कर्मण शरीर । कार्मण शरीर यानी कर्म । '
‘भगवंत, बाल शरीर के पूर्व, पूर्वजन्म का औदारिक शरीर मानें तो ?'
‘नहीं, पूर्वजन्म का शरीर (औदारिक) नष्ट हो जाता है। एक जन्म से (भव से) दूसरे जन्म तक आत्मा के साथ कार्मण शरीर रहता है । और उस कार्मण शरीर से ही दूसरे जन्म के शरीर की रचना होती है। इसलिए इस जन्म के शरीर का मूल कारण कर्म है।
अग्निभूति, तीसरा तर्क सुन ले, मनुष्य दान देता है, शील का पालन करता है, तप करता है... वैसे कोई भी क्रिया करता है, तो उसका फल मिलता है, यह तो तू मानता है न? जैसे किसान खेती करता है तो उसे धान्य की प्राप्ति होती है।'
‘भगवंत, जीवात्मा की प्रत्येक क्रिया का फल मिलता ही है, ऐसा नियम तो नहीं है! जैसे किसान को कृषि से कभी धान्य नहीं भी मिलता है।' 'महानुभाव, बुद्धिमान जीव फल की दृष्टि से ही क्रिया करता है। फल नहीं मिलता है अज्ञान से अथवा सामग्री के अभाव के कारण । अन्यथा बुद्धिमान मनुष्य निष्फल प्रवृत्ति क्यों करेगा? पूर्ण सामग्री होने पर जीवात्मा की क्रिया फलवती होगी ही।'
‘भगवंत, दान वगैरह धर्मक्रिया करनेवाले को अदृष्ट फल पुण्य कर्म का मिलता है - चूँकि वह चाहता है, परंतु कृषि आदि करनेवाला तो धान्य वगैरह प्रत्यक्ष फल चाहता है, तो फिर उसको अदृष्ट फल 'कर्म' की प्राप्ति कैसे होती है?'
'अग्निभूति, यहाँ चाहने न चाहने की बात नहीं है। हिंसा वगैरह पापक्रिया करनेवाला चाहे या न चाहे, पाप कर्म पैदा होगा ही! दान वगैरह धर्मक्रिया करनेवाला चाहे या न चाहे, पुण्य कर्म पैदा होगा ही । जैसा कारण, वैसा कार्य निष्पन्न होगा। चाहता है सुख और करता है पाप, तो क्या सुख मिलेगा ? नहीं मिलेगा । दुःख ही मिलेगा ।'
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