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की ओर प्रथमतः प्रस्थित हुआ था। उपनिषदों के आध्यात्मिक पक्ष को समझने के लिए मुण्डकोपनिषद् के प्रथम खण्ड के दस और द्वितीय खण्ड के आठ श्लोक विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। मुण्डकोपनिषद् स्पष्ट रूप से औपनिषदिक धारा के श्रमणधारा होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसी प्रकार कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली के प्रारम्भ में जो श्रेय और प्रेय मार्ग का विवेचन कर श्रेय मार्ग की प्रमुखता बताई गई है वह भी औपनिषदिक धारा के श्रमण धारा के निकट होने का प्रमाण है।
मुण्डकोपनिषद् (३/१/५) का यह कथन कि “इस शरीर के भीतर जो आत्मतत्त्व उपस्थित है उसे सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा दोषों से क्षीण यतीगण देख लेते हैं" जैन दर्शन के सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप रूप मोक्षमार्ग को ही प्रतिध्वनित करता है। इसी प्रकार "यह आत्मा वाणी, मेधा (बुद्धि) अथवा शास्त्र-श्रवण से प्राप्त नहीं होती। वस्तुत: जो इसे जानना चाहता है उसके सामने यह आत्मा स्वयं ही अपने स्वरूप को उद्घाटित कर देता है।" (मुण्डकोपनिषद् ३/२/३) का यह कथन हमें जैन आगम आचारांग में भी मिलता है। उपनिषदों में ऐसे अनेकों वचन उपलब्ध हैं जो श्रमण परम्परा की अवधारणा से तादात्म्य रखते हैं। यह सत्य है कि उपनिषदों पर वैदिक परम्परा का भी प्रभाव देखा जाता है, क्योंकि मूलत: औपनिषदिक धारा वैदिक धारा और श्रमण धारा के समन्वय का ही परिणाम है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् (४/५/६) में भी सांख्य दर्शन का - विशेष रूप से त्रिगुणात्मक प्रकृति एवं दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा आसक्त एवं अनासक्त जीवों का जो चित्रण है वह स्पष्ट रूप से सांख्य दर्शन और औपनिषदिक धारा की श्रमण परम्परा के साथ सहधर्मिता को ही सूचित करता है। इसी क्रम में बृहदारण्यक उपनिषद् (४/४/१२)का यह कथन कि, “पुरुष के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाने पर उसे किसी कामना या इच्छा से दु:खी नहीं होना पड़ता है" तथा इसी उपनिषद् (४/४/२२) में आगे यह कथन कि "यह आत्मा महान, अजन्मा, विज्ञानमय, हृदयाकाशशायी है और इसे जानने के लिये ही मनिजन पत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा का परित्याग कर भिक्षाचर्या से जीवन जीते हैं। इस आत्मा की महिमा नित्य है, वह कर्म के द्वारा न तो वृद्धि को प्राप्त होती है न ह्रास को। इस आत्मा को जानकर व्यक्ति कर्मों से लिप्त नहीं होता। इस आत्मा का ज्ञान रखने वाला शांतचित्त, तपस्वी उपरत, सहनशील और समाहित चित्त वाला आत्मा, आत्मा में ही आत्मा का दर्शन कर सभी को अपनी आत्मा के समान देखता है, उससे कोई पाप नहीं होता, वह पापशून्य, मलरहित, संशयहीन ब्राह्मण ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाता है (बृहदारण्यक ४/४/२३) औपनिषदिक धारा के श्रमण धारा से नैकट्य को ही सूचित करता है। वस्तुतः
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