Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 6
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 130
________________ मूलाचार : एक अध्ययन : १२१ हो, ऐसा भी कहीं संकेत उपलब्ध नहीं होता (इस सम्बन्ध में मैंने अलग से विचार किया है जिसे आगे देखा जा सकता है)। ६. मूलाचार में २२ तीर्थकर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं किन्तु ऋषभ, महावीर छेदोपस्थापनीय का उपदेश देते हैं। इसी प्रकार प्रथम और अंतिम तीर्थंकर सप्रतिक्रमण धर्म का प्रतिपादन करते हैं जबकि मध्यम के २२ तीर्थकर अपराध होने पर प्रतिक्रमण का विधान करते हैं। ये दोनों गाथाएं भद्रबाहु कृत आवश्यक नियुक्ति में भी हैं और वह श्वेताम्बर ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा में तीर्थंकरों की आचार परम्परा में भेद होता है, ऐसी मान्यता ही नहीं है, अत: यह ग्रन्थ उनकी परम्परा से भिन्न है। ७. आवश्यकनियुक्ति की ८० गाथाएं मूलाचार में भी हैं। मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय यह कहा गया है कि प्रस्तुत आवश्यक पर समास से अर्थात् संक्षेप में नियुक्ति कहूँगा, अवश्य ही अर्थ सूचक है, क्योंकि सम्पूर्ण मूलाचार में आवश्यक अधिकार को छोड़कर अन्य प्रकरणों में नियुक्ति' शब्द शायद ही आया हो। षडावश्यक के अन्त में भी इस अध्याय को नियुक्ति के नाम से ही निर्दिष्ट किया गया है। वैसे तो प्रेमीजी ने मात्र भगवतीआराधना से इसकी गाथाओं की समरूपता की चर्चा की है, परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती। मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अनेक ग्रन्थों की गाथायें समान रूप से उपलब्ध होती हैं। उनमें शौरसेनी और अर्धमागधी अथवा महाराष्ट्री के अन्तर के अतिरिक्त कहीं किसी प्रकार का अन्तर भी नहीं है। मूलाचार के बृहत्प्रत्याख्यान नामक द्वितीय अधिकार में अधिकांश गाथायें महापच्चक्खाण और आउरपच्चक्खाण से मिलती हैं। मूलाचार के बृहत् प्रत्याख्यान और संक्षिप्त प्रत्याख्यान इन दोनों अधिकारों में क्रमशः ७१ और १४ गाथायें अर्थात् कुल ८५ गाथाएँ हैं। इनमें से ७० गाथायें तो आतुरप्रत्याख्यान नामक श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णक से मिलती हैं। शेष १५ गाथाओं में भी कुछ महापच्चक्खाण एवं चन्द्रावेध्यक में मिल जाती हैं। ये ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के रूप में आज भी स्वीकार्य हैं। पुनः अध्याय का नामकरण भी उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर है। इसी प्रकार मूलाचार के षडावश्यक अधिकार की १९२ गाथाओं में से ८० गाथायें आवश्यकनियुक्ति में समान रूप से उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त इसी अधिकार में पाठभेद के साथ उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार और दशवैकालिक से अनेक गाथायें मिलती हैं। पंचाचारअधिकार में सबसे अधिक २२२ गाथायें हैं। इसकी ५० से अधिक गाथायें उत्तराध्ययन और जीवसमास नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ में समान रूप से पायी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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