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महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक जीवनदृष्टि : १६९
बिना नहीं रह सकता, वैसे ही समाज का कोई भी प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे प्राणी का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता।' इस प्रकार आचार्य समाज की सावयवता को सिद्ध कर इस लोकमंगल की साधना में लोकमंगल का सन्देश देते हुए आगे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए। वे लिखते हैं - "जिस प्रकार अपने आपको भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती, उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व या विस्मय नहीं होता है। क्योंकि परार्थ द्वारा हमें अपने ही समाजरूपी शरीर को या उसके अवयवों की सन्तुष्टि करते हैं इसलिए मात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके, न गर्व करना और न विस्मय और न विपाकफल की इच्छा ही।" महायान में बोधिसत्त्व और गीता में स्थितप्रज्ञ के जो आदर्श हैं वे व्यक्ति के स्थान पर समाज को महत्त्व देते हैं। उन्होंने वैयक्तिक कल्याण या स्वहित के स्थान पर सामाजिक कल्याण को महत्त्व दिया है और इस प्रकार व्यक्ति के ऊपर समाज को प्रतिष्ठित किया है।
महायान के बोधिसत्त्व का लक्ष्य मात्र वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना नहीं। वह तो लोकमंगल के लिए अपने बन्धन और दुःख की भी कोई परवाह नहीं करता। वह कहता है -
"बहूनामेकदुःखेन यदि दुःखं विगच्छति, उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः। मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागरा:,
तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षणारसिकेन किम्॥" यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दु:ख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दु:खों से मुक्त होता हआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है। वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को व्यक्त करते हुए भागवत, जिसमें गीता के चिन्तन का ही विकास देखा जाता है, के सप्तम् स्कन्ध में प्रह्लाद ने भी स्पष्ट रूप से कहा था कि -
"प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामाः। मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।। नेतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्षु एको । नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनृपश्ये ।।
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