Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 6
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 162
________________ बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना : १५३ मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः । तैरेव ननु पर्याप्तं, मोक्षेणारसिकेन किम् ।। बोधि० ८/१०८ यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःखों को दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है, वह क्या कम है, फिर नीरस निर्वाण प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार हम देखते हैं कि निर्वाण की अवधारणा भी सामाजिकता की विरोधी नहीं है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण का अर्थ है आत्मभाव का पूर्णतया विगलन। वस्तुत: मैं, अहं और मेरेपन के भाव से मुक्त हो जाना ही निर्वाण प्राप्त करना है। इस दृष्टि से निर्वाण का अर्थ है, अपने आपको मिटाकर समष्टि या समाज में लीन कर लेना। बौद्ध दर्शन में वही व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में लीन कर दे। आचार्य शान्तिदेव 'बोधिचर्यावतार' में लिखते हैं सर्वत्यागश्च निर्वाणं, निर्वाणार्थि च मे मनः । त्यक्त्वं चेन्मया सर्व वरं सत्वेषु दीयताम् ।। बोधि० ३/११ अथात् यदि सर्व का त्याग ही निर्वाण है और मेरा मन निर्वाण को चाहता है, तो सब कुछ जो त्याग करना है, उसे अन्य प्राणियों को क्यों न दे दिया जाये। इस प्रकार शांतिदेव की दृष्टि में व्यक्ति का पूर्णत: समष्टि में लीन हो जाना अर्थात् अपने को प्राणिमात्र की सेवा में समर्पित कर देना ही साधना का एकमात्र आदर्श है। अत: निर्वाण का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, यह धारणा भ्रान्त है। अन्त में हम यह कह सकते हैं कि बौद्ध दर्शन में, चाहे श्रामण्य या संन्यास का प्रत्यय हो, चाहे निर्वाण का, वह किसी भी अर्थ में सामाजिकता का विरोधी नहीं है। बौद्ध आचार्यों की दृष्टि और विशेषकर महायान आचार्यों की दृष्टि सदैव ही सामाजिक चेतना से परिपूर्ण रही है और उन्होंने सदैव ही लोक मंगलकारी दृष्टि को जीवन का आदर्श माना है । आचार्य शान्तिदेव बोधिचर्यावतार (८/१२५-१२९) में बौद्ध धर्म और दर्शन में सामाजिक चेतना कितनी उदात्त है, इसका स्पष्ट चित्रण करते हैं। हम यहां उनके वचनों को यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं - यदि दास्यामि किं भोक्ष्ये इत्यात्मार्थे पिशाचता । यदि भोक्ष्ये किं ददामीति परार्थ देवराजता ।। बोधि० ८/१२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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