Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 6
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 170
________________ धर्म निरपेक्षता और बौद्धधर्म : १६१ चिन्तन से रहित श्रद्धा अंधश्रद्धा होती है और ऐसी अंधश्रद्धा से युक्त व्यक्तियों का उपयोग तथाकथित धार्मिक नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये कर लेते हैं। अतः धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा का स्थान स्वीकृत करते हुए भी उसे विवेक या चिन्तन से रहित कर देना नहीं है। बौद्धधर्म ने सदैव ही श्रद्धा की अपेक्षा तर्क और प्रज्ञा को अधिक महत्त्व दिया है। आलारकलामसुत्त में बुद्ध स्पष्टरूप में कहते हैं कि हे कलाम ! तुम मेरी बात को केवल इसलिए सत्य स्वीकार मत करो कि इनको कहने वाला व्यक्ति तुम्हारी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र है। अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में प्रत्येक बात को तर्क की तराजू पर तौल कर और अनुभव की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करना चाहिए। बुद्ध अन्य विचारकों की वैचारिक स्वतंत्रता का कभी हनन नहीं करना चाहते। इसके विपरीत वे हमेशा कहते हैं कि जो कुछ हमने कहा है उसे अनुभव की कसौटी पर कसो और सत्य की तराजू पर तौलो, यदि वह सत्य लगता है तो उसे स्वीकार करो । बुद्ध के शब्दों में हे कलाम ! जब तुम आत्म अनुभव से जानलो कि ये बातें कुशल हैं, निर्दोष हैं, इनके आधार पर चलने से सुख होता है तभी इन्हें स्वीकार करो अन्यथा नहीं । बुद्ध आस्था प्रधान धर्म के स्थान पर तर्क प्रधान धर्म का व्याख्यान करते हैं और इस प्रकार के धार्मिक मतान्धता और वैचारिक दुराग्रहों से व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं। उसे केवल शास्ता के प्रति आदर के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए। वस्तुतः धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास या आस्था का नियन्त्रक नहीं माना जाएगा तब तक हम धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जानी वाली होलियों से मानवजाति को नहीं बचा सकेंगे। धर्म के लिए श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और व्याख्याओं को विवेक की तराजू पर तौला जाये और युगीन सन्दर्भ में उनका मूल्यांकन किया जाये। जब तक यह नहीं होता तब तक धार्मिक जीवन में आई संकीर्णता का मिट पाना सम्भव नहीं। विवेक ही ऐसा तत्त्व है जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है, किन्तु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। आज आवश्यकता बौद्धिक धर्म की है और बुद्ध ने बौद्धिक धर्म का सन्देश देकर हमें धार्मिक मतान्धताओं और धार्मिक आग्रहों से ऊपर उठने का सन्देश दिया है। बुद्ध का मध्यममार्ग धर्मनिरपेक्षता का आधार बुद्ध ने अपने दर्शन को मध्यममार्ग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार नदी की धारा कूलों में न उलझकर उनके मध्य से बह लेती है, उसी प्रकार बौद्धधर्म भी ऐकान्तिक दृष्टियों से बचकर अपनी यात्रा करता है । मध्यममार्ग का एक आशय यह भी है कि वह किसी भी दृष्टि को स्वीकार नहीं करता। सांसारिक सुखभोग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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