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भागवत के रचना काल के सन्दर्भ में जैन साहित्य के कुछ प्रमाण : १४३
अधिकांश विद्वत् वर्ग इसी मत का है कि भागवत की रचना पाँचवीं शताब्दी से बहुत परवर्ती है। इस प्रकार यदि हम नन्दीसूत्र में भागवत के उल्लेख को स्वीकार करते हैं तो हमें दो विकल्पों में से किसी एक को स्वीकार करना होगा। या तो हम यह माने कि नन्दीसूत्र के काल में भागवत का अस्तित्व था या यह मानें कि नन्दीसूत्र की रचना पाँचवीं शती के बाद हई। इस समस्या के सन्दर्भ में हमने गहराई से विचार किया। प्रस्तुत प्रसंग में हमें नन्दीसूत्र के मूल-पाठ में ही दो पाठान्तर देखने को मिले हैं। आचार्य मलयगिरि ने नन्दीसूत्र की वृत्ति (ईसा की तेरहवीं शती) में जो मूल पाठ दिया है उसमें स्पष्ट रूप से भागवत का उल्लेख है किन्तु जब हम नन्दीचूर्णि (ईसा की सातवीं शती) का मूलपाठ लेते हैं तो उस पाठ में स्पष्ट रूप से भागवत का उल्लेख नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि नन्दीसूत्र के मूल पाठ में भागवत का उल्लेख एक परवर्ती घटना है जो उसमें नन्दीचूर्णि के भी पश्चात् प्रविष्ट किया गया है। वस्तुतः भागवत का उल्लेख उसमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् एवं तेरहवीं शताब्दी के पूर्व ही कभी प्रक्षिप्त किया गया है। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र भी नन्दीवृत्ति के मूल पाठ में भागवत का उल्लेख नहीं करते हैं।
इस चर्चा से यह भी फलित होता है कि आगमों के पाठ निर्धारण में जब भी वृत्तियों, टीकाओं और चूर्णियों के पाठ में अन्तर हो तो हमें चूर्णिगत पाठों को ही प्राचीन एवं प्रमाण मानकर निर्णय लेना होगा। यहाँ हम यह कह सकते हैं कि मलयगिरि की वृत्ति (ई. तेरहवीं शती) में मूल पाठ में जो भागवत आदि का उल्लेख हुआ है वह निश्चय ही एक परवर्ती काल में किया गया प्रक्षेप है और मूल ग्रन्थ का अंग नहीं है।
इसी क्रम में हमने हरिभद्र सूरि (ईसा की आठवीं शती का पूर्वार्ध) की नन्दीसूत्र की वृत्ति के मूलपाठ को भी देखा, वह पाठ भी चूर्णि के पाठ के अनुरूप ही है, उसमें भी भागवत का उल्लेख नहीं है। इससे यह फलित होता है कि जैन स्रोतों के आधार पर भागवत की रचना ई.सन् की आठवीं शताब्दी के पश्चात् और ई.सन् की तेरहवीं शती के पूर्व अर्थात् दोनों के मध्य कभी भी हुई होगी। याकिनीसूनु हरिभद्र के काल तक अर्थात् ईसा की आठवीं शती के पूर्वार्द्ध तक भागवत की रचना नहीं हुई थी अन्यथा चूर्णिकार जिनदास (७वीं शती) और आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) अपनी सूचियों में कहीं तो उसका उल्लेख करते ही।
श्री शान्तनुविहारी द्विवेदी ने कल्याण के भागवत अंक में भागवत की रचना को व्यासकृत सिद्ध करते हए उसका रचनाकाल आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु उन्होंने अपने पक्ष में जो भी प्रमाण
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