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भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध : ११ ।
श्रमण धारा की व्यापकता का पता लग सकता है। क्योंकि इन तीनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इनमें अनेक नाम समान रूप से पाये जाते हैं जो इस तथ्य के सूचक हैं कि भारतीय श्रमणधारा का मूल स्रोत एक ही है।
___ औपनिषदिक धारा को श्रमणधारा के साथ संयोजित करने के पीछे मुख्य रूप से निम्न आधार हैं -
औपनिषदिक धारा मूलतः कर्मकाण्ड की विरोधी है। उपनिषदों में न केवल वैदिक कर्मकाण्ड की उपेक्षा की गई है अपितु मुण्डकोपनिषद् (१/२/७) में यह कहकर कि यज्ञ रूपी ये नौकाएं अदृढ़ हैं, सछिद्र हैं, ये संसार सागर में डुबाने वाली हैं, न केवल वैदिक कर्मकाण्ड की आलोचना की है अपितु यह कहकर कि जो इसे श्रेय मानकर इसका अभिनन्दन करता है, वह मूढ़ पुरुष जरा और मृत्यु को प्राप्त होता है, कर्मकाण्ड की हेयता को भी उजागर किया गया है। इसके साथ-साथ बृहदारण्यकोपनिषद् (६/२/८) में जनक के द्वारा याज्ञवल्क्य को स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि यह अध्यात्म विद्या पहले किसी भी ब्राह्मण के पास नहीं रही है, तुम्हारी नम्रतायुक्त प्रार्थना को देखकर ही मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। इस परिचर्चा में न केवल भौतिक उपलब्धियों को हीन बताया गया है, अपितु यज्ञ रूपी कर्मकाण्ड को प्राकृतिक शक्तियों के साथ समन्वय करते हुए उनका किसी रूप में आध्यात्मीकरण भी किया गया है। इस उपनिषद् में (६/२/१६ पृ. ३४५) स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वे लोक जो यज्ञ, दान, तपस्या के द्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं वे धूम मार्ग को प्राप्त होते हैं । ज्ञातव्य है कि यहाँ धूम मार्ग को जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने वाला कहा गया है। यद्यपि उपनिषदों में अनेक स्थलों पर कर्मकाण्ड सम्बन्धी उल्लेख मिल जाते हैं किन्तु औपनिषदिक ऋषि उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते थे। दूसरा महत्त्वपूर्ण संकेत उपनिषदों में यह मिलता है कि उनमें यज्ञीय कर्मकाण्ड का आध्यात्मीकरण किया गया है। आत्मतत्त्व की सर्वोपरिता औपनिषदिक चिन्तन के आध्यात्मिक होने का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं (ऐतरेयोपनिषद् १/१/१)। यज्ञ के आध्यात्मीकरण के कुछ उल्लेख यहा प्रस्तुत किये जाते हैं :
बृहदारण्यकोपनिषद् (६/२/१२) में कहा गया है कि पुरुष ही अग्नि है। उसका खुला हुआ मुख ही समिधाएं हैं, प्राण ही धुंआ है, वाणी ही ज्वाला है, चक्षु ही अंगारे हैं, श्रोत्र ही चिंगारी है। इस अग्नि में ही समस्त देवता अन्न का होम करते हैं। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि यद्यपि बृहदारण्यक को उपनिषद् की कोटि में गिना जाता है, किन्तु मूल में वह आरण्यक वर्ग का ही है। आरण्यक उस स्थिति के सूचक हैं जब वैदिक कर्मकाण्ड आध्यात्मिक स्वरूप ग्रहण करने
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