________________
प्राकृत एवं अपभ्रंश जैन साहित्य में कृष्ण : १०१ पाण्डवों के साथ पद्मनाभ की राजधानी अमरकंका पहुँचते हैं। इसी प्रसंग में पद्मनाभ के पास दूत का भेजना, पद्मनाभ से युद्ध में पाण्डवों का पराजित होना, अन्त में श्री कृष्ण द्वारा पद्मनाभ को पराजित करना और द्रौपदी को वापस प्राप्त करने के उल्लेख हैं। इस कथा प्रसंग में श्री कृष्ण के पुरुषार्थ और पराक्रम के चर्चा के साथ-साथ यह भी उल्लेख हुआ है कि द्रौपदी सहित पांचों पाण्डव और श्रीकृष्ण जब वापस आते हैं तब पाण्डव नौका द्वारा पहले गंगा पार कर लेते हैं, किन्तु गंगा पार करने के लिए श्री कृष्ण को वापस नौका नहीं भेजते हैं। फलत: वे गंगा नदी को तैरकर पार करते हैं और पाण्डवों पर कुपित हो उन्हें देश निर्वासन की आज्ञा देते हैं। पाण्डव कुन्ती के पास पहुंचते हैं और सारी घटना उसे सुनाते हैं। कुन्ती पुनः कृष्ण के पास पहुँचती है और श्री कृष्ण से अपने पुत्रों के देश निर्वासन की आज्ञा को वापस लेने की प्रार्थना करती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वासुदेव के वचन मिथ्या नहीं होते, अत: देश निर्वासन की आज्ञा वापस लेना सम्भव नहीं है। अन्त में वे पाण्डवों को दक्षिण दिशा में जाकर समुद्र के किनारे पाण्डु-मदुरा नामक नगर बसाकर वहां रहने का आदेश देते हैं। यद्यपि यहां कुछ भौगोलिक असंगतियाँ परिलक्षित होती हैं- प्रथम तो यह कि दक्षिण-मदुरा (मदुराई) दक्षिण में होकर भी समुद्र के किनारे नहीं है, दूसरे पूर्वीय समुद्र तट से लौटते हुए मार्ग में गंगा का पड़ना आवश्यक नहीं है।
प्रस्तुत कथा-प्रसंग श्रीकृष्ण को पाण्डवों का मित्र एक शूरवीर योद्धा तथा दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के स्वामी के रूप में चित्रित करता है। विशेषता यह है कि यहां पर श्रीकृष्ण और पाण्डवों के चरित्र के प्रसंग में महाभारत के युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है। उसके स्थान पर अमरकंका में पद्मनाभ से हुए युद्ध का चित्रण है, समानता मात्र यह है कि दोनों ही युद्धों का कारण द्रौपदी है। जहां तक मेरी जानकारी है हिन्दू परम्परा में कृष्ण चरित्र के चर्चा प्रसंग में कहीं भी अमरकंका के पद्मनाभ के साथ उनके युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है। मात्र यही नहीं श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर कुपित होना, उन्हें देश निर्वासन की आज्ञा देना आदि प्रसंग भी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा में कृष्ण के जीवन प्रसंग के उल्लेख महाभारत एवं श्रीमद्भागवत में कृष्ण के जीवन चरित्र के उल्लेखों से अनेक दृष्टि से भिन्न और प्राचीन हैं।
ज्ञाताधर्मकथा के ही पांचवें शैलक नामक अध्ययन में थावच्चापुत्र के दीक्षित होने के प्रसंग में श्री कृष्ण, उनकी राजधानी द्वारिका और उनके परिवार का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि द्वारिका नगरी पूर्व-पश्चिम में १२ योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में ९ योजन चौड़ी थी। यह कुबेर की मति For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International