Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 6
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 30
________________ महावीर का श्रावक वर्ग तब और अब : एक आत्मविश्लेषण 1: २१ युग में भी ऐसे कुछ साधक हुए हैं जिनका चारित्र बल किसी अपेक्षा से सामान्य मुनियों से भी श्रेष्ठ रहा है। फिर भी यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो ऐसा लगता है कि महावीर के युग की अपेक्षा आज इस प्रकार के आत्मनिष्ठ गृहस्थ साधकों की संख्या में कमी आयी है। यदि हम महावीर के युग की बात करते हैं तो वह बहुत पुरानी हो गई । यदि निकटभूत अर्थात् उन्नीसवीं शती की बात को ही लें तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल के जो समाज - आधारित आपराधिक आंकड़े हमें उपलब्ध होते हैं, यदि उनका विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट लगता है कि उस युग में जैनों में आपराधिक प्रवृत्ति का प्रतिशत लगभग शून्य था। यदि हम आज की स्थिति देखें तो छोटे-मोटे अपराधों की बात तो एक ओर रख दें, देश के महाअपराधों की सूची पर दृष्टि डालें तो चाहे घी में चर्बी मिलाने का काण्ड हो, चाहे अलकबीर के कत्लखाने में तथाकथित जैन भागीदारी का प्रश्न हो अथवा बड़े-बड़े हवाला जैसे आर्थिक घोटाले हों, हमारी साख कहीं न कहीं गिरी है। एक शताब्दी पूर्व तक सामान्य जनधारणा यह थी कि आपराधिक 'प्रवृत्तियों का जैन समाज से कोई नाता रिश्ता नहीं है, लेकिन आज की स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्तियों के सरगनाओं में जैन समाज के लोगों के नाम आने लगे हैं। इससे ऐसा लगता है कि वर्तमान युग में हमारी ईमानदारी और प्रामाणिकता पर अनेक प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं? तब की अपेक्षा अब अणुव्रतों के पालन की आवश्यकता अधिक है। एक युग था जब श्रावक से तात्पर्य था व्रती श्रावक । तीर्थंकरों के युग में जो हमें श्रावकों की संख्या उपलब्ध होती है वह संख्या श्रद्धाशील श्रावकों की संख्या नहीं, बल्कि व्रती श्रावकों की है । किन्तु आज स्थिति बिल्कुल बदलती हुई नजर आती है, यदि आज हम श्रावक का तात्पर्य ईमानदारी एवं निष्ठापूर्वक श्रावक व्रतों के पालन करने वालों से लें, तो हम यह पाएँगे कि उनकी संख्या हमारे श्रमण और श्रमणी वर्ग की अपेक्षा कम ही होगी। यद्यपि यहाँ कोई कह सकता है कि व्रत ग्रहण करने वालों के आँकड़े तो कहीं अधिक हैं, किन्तु मेरा तात्पर्य मात्र व्रत ग्रहण करने से नहीं, किन्तु उसका परिपालन कितनी ईमानदारी और निष्ठा से हो रहा है, इस मुख्य वस्तु से है। महावीर ने गृहस्थ वर्ग को श्रमणसंघ के प्रहरी के रूप में उद्घोषित किया था। उसे श्रमण के माता-पिता के रूप में स्थापित किया गया था । यदि हम सुदूर अतीत में न जाकर केवल अपने निकट अतीत को ही देखें तो यह स्पष्ट है कि आज गृहस्थ न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है बल्कि वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज यह समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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