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जहां तक मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का प्रश्न है हमें यह स्वीकार करना होगा कि मानवीय सभ्यता और संस्कृति का एक कालक्रम में विकास हुआ है। मनुष्य प्रारम्भ में एक विवेकशील विकसित प्राणी के रूप में ही प्रकृति पर आश्रित होकर अपना जीवन जीता था। उसमें सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना का विकास एक परवर्ती घटना है। अपने प्राकृत जीवन से सामाजिक जीवन और सामाजिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर उसका क्रमिक विकास हुआ है। जैन परम्परा की दृष्टि से भी विचार करें तो यौगलिक परम्परा से कुलकर परम्परा और उससे राज्य व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ है। विशुद्ध प्राकृतिक जीवन से सामाजिक जीवन और सामाजिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर उसने एक यात्रा की है। इस द्रष्टि से विचार करने पर यह लगता है कि प्रारम्भ में प्रवर्तक धारा या वैदिक धारा ही अस्तित्व में आयी। जैसे-जैसे प्राकृतिक संसाधनों में कमी आई और मनुष्यों की संख्या में भी वृद्धि हुई, जैविक आवश्यकताओं के साधनों पर आधिपत्य की भावना जागृत हुई। उन जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों की अधिकतम उपलब्धि कैसे हो, उसी हेतु प्रकृति पूजा और तज्जन्य प्राकृतिक शक्तियों में देवत्व का आरोपण करने वाले वैदिक धर्म का विकास हुआ। किन्तु जब व्यक्ति इन भौतिक उपलब्धियों से आत्मतोष नहीं पा सका और उनके निमित्त से उसका वैयक्तिक और सामाजिक जीवन संघर्षों और तनावों से ग्रस्त हो गया होगा तो वह आध्यात्मिक शान्ति की खोज में निकला होगा और उसी से आध्यात्मिक श्रमण धारा का विकास हुआ। प्रारम्भिक अवस्था में उसके सामने मुख्य समस्याएं उसकी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति ही रही होगी। कहा भी है - "भूखे भजन न होंहि गोपाला''। अत: स्वाभाविक है कि पहले प्रवर्तक वैदिक धर्म का विकास हुआ होगा किन्तु जैसा ईसामसीह का कथन है कि - "Man can not live by bread alone" अर्थात् मनुष्य केवल रोटी पर जिन्दा नहीं रह सकता, परिणामत: उसकी आध्यात्मिक भूख और जिज्ञासावृत्ति जाग्रत हुई और उसने आध्यात्मिक एवं निवृत्तिमूलक धर्मों को जन्म दिया। क्योंकि मूल्य व्यवस्था के क्रम में भी जैविक
और सामाजिक मूल्यों के बाद ही आध्यात्मिक मूल्यों की ओर रुझान होती है। जैविक और सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा करके आध्यात्मिक मूल्यों को जीना, चाहे किसी व्यक्ति विशेष के लिए सम्भव हो, किन्तु वह सार्वभौमिक और सार्वजनिक नहीं हो सकता।
जहां तक ऐतिहासिक साक्ष्यों का प्रश्न है भारतीय संस्कृति को समझने के लिये हमारे सामने दो ही प्रमाण हैं - १. साहित्यिक और २. पुरातात्त्विक।
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