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४. व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी ४. व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थन
दैविक शक्तियों की कृपा पर फिर आत्मकल्याण हेतु वैयक्तिक विश्वास
पुरुषार्थ पर बल। ईश्वरवादी
५. अनीश्वरवादी ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास,
कर्म सिद्धान्त का समर्थन। |७. साधना के बाह्य साधनों पर बल | ७. आन्तरिक विशुद्धता पर बल। ८. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग/ईश्वर के ८. जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण सान्निध्य की प्राप्ति
की प्राप्ति। |९. वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का | ९. जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन का केवल कर्मणा आधार पर
समर्थन। १०. गृहस्थ-जीवन की प्रधानता | १०. संन्यास जीवन की प्रधानता। ११. सामाजिक जीवन शैली । ११. एकाकी जीवन शैली। १२. राजतन्त्र का समर्थन १२. जनतन्त्र का समर्थन। १३. शक्तिशाली की पूजा १३. सदाचारी की पूजा १४. विधि विधानों एवं कर्मकाण्डों की | १४. ध्यान और तप की प्रधानता।
प्रधानता १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित वर्ग) का | १५. श्रमण-संस्था का विकास।
विकास १६. समाधिमूलक
१६. समाधिमूलक प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ-हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ट हों, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि-आदि । इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रुख अपनाया, उसने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बंधन है और संसार दुःखों का सागर। उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य
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