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साधना पथ स्त्री में ऐसी मोहिनी है कि प्रथम जीव को उसे देखने का मन होता है, फिर उस से वार्तालाप करने का मन होता है, फिर अपने यश, कीर्ति को धूल में मिलाने के लिए निर्लज्ज बनता है, फिर भ्रष्ट होकर अपना लोक-परलोक बिगाड़ता है। अतः जिस मनुष्य को अपना हित करना है, उसे स्त्री तरफ दृष्टि भी नहीं करनी चाहिए। उसके अंगो का निरीक्षण नहीं करना और उसके संसर्ग में कभी आना नहीं चाहिए। स्त्रीओं की कथा भी सुननी नहीं चाहिए। निर्विकारी पुरुषों का संग करें। जैसा संग, वैसा रंग होता है।
___ “स्त्री में दोष नहीं है परंतु आत्मा में दोष है और उस दोष के चले जाने से आत्मा जो देखती है, वह अद्भुत आनंदमय ही है; इसलिए इस दोष से रहित होना।” श्री.रा. ७८
जितेन्द्रिय बनना। प्रथम जिह्वा इन्द्रिय पर काबू पाने की जरूरत है। गरिष्ठ पदार्थों का सेवन नहीं करना। इस शरीररूपी वृक्ष का मूल जिह्वा है। वृक्ष का मूल नीचे होता है और डाली उपर होती है, परन्तु इसका मूल तो उपर है, जहाँ से पूरे शरीर को पोषण मिलता है। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म को जीतना कठिन है, पाँच व्रतो में ब्रह्मचर्य का पालन कठिन है। तीन गुप्तिमें मनोगुप्ति का पालन कठिन है और पाँच इन्द्रियों में जिह्वा इन्द्रिय वश करना कठिन है।
सम्यक्त्व अनुभवः
आत्मा के शुभ परिणाम बहुत ही उच्च दशा को प्राप्त करते हैं और उसी में वृत्ति एकाकार हो जाती है। उसके बाद जगत की विस्मृति होने से
आत्मा का अनुभव होता है । (आत्मा का शुद्ध परिणाम) उसका वर्णन तो किसी शास्त्र में नहीं है, क्योंकि वह अपने अनुभव की वस्तु है और जीव उस स्थिति पर पहुँचता है, तब ही उसे अनुभव होता है। उसके आनंद का वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रथम एक समय मात्र उसका अनुभव हो
और मालूम पड़े, फिर तो अनुभव वर्धमानताको पाकर उसका पूर्ण निश्चय हो जाता है। बनारसीदासजी ने भी 'नाटक समयसार' में कहा है किः