Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 17
________________ शुब्रिग के सम्पादन में छपी संस्कृत टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुई थी। यह संस्कृत टिप्पणी 1942 में प्रोफेसर शूबिंग के सम्पादन में सर्वप्रथम छपी बतलाई गई है। यह संक्षिप्त टीका जिज्ञासुओं के लिए पर्याप्त नहीं है तथापि हाम्बुर्ग विश्वविद्यालय जर्मनी के प्रोफेसर डॉ. वाल्टर शुब्रिग ने अपने संस्करण में इसे संस्कृत टीका के रूप में छपवाया था। सर्वप्रथम 1942 में गोटिंजन की विद्या अकादमी की पत्रिका में पृष्ठ 489/576 पर रोमन लिपि में इन सूत्रों का मूलपाठ तथा प्रो. शुब्रिग की जर्मन टिप्पणियाँ भी साथ थी। उस समय जर्मन अनुवाद नहीं छपा था। वह बाद में हाम्बुर्ग से 1969 में छपा। सुनते हैं उसका अंग्रेजी अनुवाद भी किसी ने किया था किन्तु वह देखने में अब तक किसी के नहीं आया है। इन सूत्रों का एक रोमन देवनागरी संस्करण अहमदाबाद के एल.डी. इंस्टिट्यूट से भी 1974 में पहली बार प्रकाशित हुआ, जो शुब्रिग के सम्पादनानुसार उनकी भूमिका के अंग्रेजी अनुवाद सहित तथा उनकी संक्षिप्त टिप्पणियों के अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ। इसमें भी केवल रोमन तथा देवनागरी मूल है, हिन्दी अनुवाद कहीं नहीं है। इस प्रकार हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित इसके प्रकाशन से जिज्ञासुओं को एक साथ वह सारी सामग्री मिल जायेगी, यह अकादमी का निर्णय रहा। __ अनुवादकों का प्रमुख उद्देश्य प्राकृत के इन सूत्रों का आशय तथा मूल का सीधा अर्थ पाठक तक पहुँचाना रहा है। इसलिए सरलता की ओर ध्यान रखते हुए भी यह प्रयत्न नहीं किया गया है कि यह व्याख्या अथवा भाष्य बने, इसे केवल अनुवाद ही रहने देने का प्रयत्न किया गया है। इससे पाठक मूल का भाव सीधे-सीधे समझ सकता है और उसके बाद अपने अध्ययन अथवा तुलनात्मक विवेचन के बाद अपने निष्कर्ष निकाल सकता है। सूत्रों का मूल प्राचीन होने के कारण अनेक स्थानों पर इसमें अस्पष्टता थी। किन्तु उनके पाठालोचन के फेर में न पड़कर उनका जो सीधा अर्थ बन सकता है वही अनुवाद के रूप में रखा गया है। अंग्रेजी अनुवाद में प्रोफेसर शब्रिग के टिप्पणों से कुछ सीमा तक सहायता अवश्य मिली है, किन्तु इन टिप्पणों का उद्देश्य अर्थ या अनुवाद करने का नहीं था। इस टिप्पणी का उद्देश्य पाठालोचन के साथ तुलनात्मक भाषिक तथा समीक्षात्मक टिप्पणियाँ देना मात्र था। उन्होंने एक स्थान पर स्पष्ट किया है कि 1942 में केवल मूल और टिप्पणियाँ ही प्रस्तुत की गई थीं। अनुवाद बाद के लिए छोड़ दिया गया था (यद्यपि वह तैयार था)। कारण था कि तब तक कुछ ही मूल प्रतियाँ उपलब्ध थीं। टूटे हुए स्थलों को पूरा करना तथा अस्पष्ट स्थलों को स्पष्ट करना, भारत से अन्य प्रतियाँ प्राप्त होने के बाद ही हो सकता था। 16 इसिभासियाई सुत्ताई

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