Book Title: Ritthnemichariyam Part 3 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 311
________________ रिटुणेमिचरिऊ (मात्रा) गुरु-समप्पिय-दिव्य-कवचेण पच्छाइय णियय-तणु दसहि सहि ढक्का-मयंगहं । सहसेण महारहहं सय-सएण उत्तम-तुरगहं ॥ (मंजरी) एत्तिएण साहणेण परिठि उ अग्गए । अ-णयणेण धुरे पुच्छिउ णिय-वले भग्गए ।। कि कज्जे णासइ गर णिवहु किं करइ पत्थु कि कुरुव-पहु तं णिसुणेवि अक्खिउ संजएण सुणु जं किउ पढमु धणंजएण वलु सयलु भग्गु दुम्मरिसणहो गय-घड घाइय दूसासणहो गुरु भणेवि दोणु परिवज्जियउ कियवम्मउ सरेहिं परज्जियउ पुणु माणइ-मइंद-सुआउहहं जीवियई हियई गहिया उहहं स-सुदकिखण आउ चयारिध्य अंवट्ठ-विंद-अणुविंद मय पायालहो कड्ढिय अमर-सरि जोतारेहि पाइय हविय हरि अवरु वि जे काइ-मि किउ गरेण तं कहिउ सव्वु एक्कखरेण घत्ता बिहि रहिएहि विहि रहवरेहि विहि सूएहि वलु ओट्ठद्धउं । एक्कहिं मिलेवि मणिदिएहिं तिहुयणु असेसु णं खद्धउं ।। १४ (मात्रा) गुरु विगरहिउ कुरु-णरि देण पई वारे परिठिएण केम हे अज्जुणु पइट्ठउ । कि दोणु ण होहि तुहूं कि अत्थ कि साउ झुट्ठः ।। (मंजरी) कि ण तोण कि ण-वि सर किं ण सरासणु । कि ण सामि हउं कि ण महार पेसणु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328