Book Title: Ritthnemichariyam Part 3 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 315
________________ रिट्ठणेमिचरिउ (मंजरी) अक्खु संढ गोवालेहिं कहि महि भुत्तिय । कइयवेहिं किं लब्भइ पर-कुलउत्तिय ॥ स-कसाएं कुरु-परमेसरेण अक्कोसेवि स-सर-धणु-धरेण तिहिं णरु वाणरु वारहेहि हउ णारायणु णवहिं णिरत्थु कउ णाराय-चउक्के चउ तुरय विहि वे-वि णिवाइय पाण-गय छहि अहिं विद्ध कइद्ध एण गय ते-विणिरत्थ खणद्धएण पुणु मुक्त च उद्दह पवर सर गय ते-वि कुभिच्च व णिप्पसर १० पुणु वीस विसज्जिय विहल गय आराहण रहियह मंत-पय हरि हसिउ ल्हसिउ गंडीव-धर कइयहु वि ण गय अकयस्थ सर राहाहवे खंडवे सुर-समरे तब-तालुय-वम्म-वहावसरे घत्ता जो जर गोग्गहे लद्ध पर भययत्त-तिगत्त-महाहवे । पेक्खमि तासु विणासु हउं उप्पण्णु महाहउ माहवे(?) :: १४ [१२] (मात्रा) किं ण करयले स-सरु गंडोउ किं तोणा-जुयलु ण-वि किण्ण हत्थ किं गुणु ण भल्लउ । किं पवर तुरंग ण-वि किं ण सूउ किं रहु ण भलउ ।। (मंजरी) कि-ण पत्थु तुहूं किं ण उ हउं णारायणु । कुरुहे जेण णउ लग्गइ एक्कु-वि पहरणु ॥ पणवेप्पिणु पंडु-पुत्तु चव जस-हाणि केम महु संभवइ णेयारु जासु तुहुं महुमहणु दुज्जोहणु तासु कवणु गहणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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