Book Title: Ritthnemichariyam Part 3 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 317
________________ रिट्टणेमिचारच [१४] (मात्रा) भग्गु कुरुवइ भग्गु कुरु-सेण्णु विहडाविय हस्थि-हड भिण्णु बहु पंचालि-कंतेण । गंडीउ विष्फारियउं पंचयण्णु पूरिउ अर्णतेण ।। (मंजरी) धण-रवेण हरि-संख-रवेण रउद्देणं । रसिउ गाई वड्ढतए महेण समुहेणं ॥ ५ विहि सद्देहि वहिरिउ कुरुत्र-वलु णं कण्णहो भिण्णु कण्ण-जुयलु किउ कंपिउ कंपिउ सल्लु मणे सलु सललु जेम उड्डविउ खणे तो दुण्णय-सलिल-महहहहो धणु हत्थहो पडिउ जयहहहो णिस्थामिउ आसा-थामु हुए भूरीसउ रवेण जे णाई मुउ विससेणु णाई घारिउ विसेण गं पडिउ वज्जु धणुव-मिसेण १०, भय जाय परोप्परु कुरु-जणहो । पेक्खंतहो अवस्थ दुज्जोहणहो अज्जुणु ण आउ आय उ मरणु कहिं णासहुं पइसहुँ कहो सरणु एक्कु जे तिहुयणु उवसंघरइ विहिं कहिउ के-वि किं उठवरउ घत्ता धुउ मरिएवउ कउरवेहिं धयरट्ठहो सिह भंजेवी । णरहो पहावे पंडवेहि महि सयल सई भुंजेवी ।। इय रिगेनिवरिए धाइयासिय-सयंभुएव-कर बासट्ठिमो इमो सग्गो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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