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(२१)
यज्ञशाला में भेजा है अतः थोड़ा भात दे दीजिए।" बेदवादी ब्राह्मण उन्हें मना कर देते हैं । खाना वापस जाते हैं।यों के पास भेजते हैं, वे उन्हें अशन- वसन से संतुष्ट कर देती हैं। वे भगवान के दर्शन करती हैं। श्रीकृष्ण उनके प्रेम का अभिनन्दन करते हैं । वेदपाठी ब्रह्मण पछताते हैं। इसी प्रकार के 'इन्द्रयज्ञ' का विरोध करते हैं, और जब इन्द्र कुपित होकर वर्षा करता है तो गोवर्धन उठाकर, उसका घमण्ड चूर-चूर कर देते हैं । स्वर्ग से आकर कामधेनु बधाई देती है और इन्द्र भी क्षमा मांगता है। वरुण का सेवक एक असुर नन्द को पकड़कर ले जाता है, कृष्ण उन्हें छुड़ाकर लाते हैं। वरुण आकर उनकी स्तुति करता है। शरद ऋतु में रासलीला प्रारम्भ होती है। वंशी की धुन सुनकर, गोपियाँ चल देती हैं। वे प्रियवियोग से विकल हैं। ये कृष्णमय हो उठती हैं०:
पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहिः
भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ।'
अर्थात् जो आकाश के समान भीतर-बाहर सब जगह स्थित हैं उनके बारे में गोपियों पेड़ पौधों से पूछने लगती हैं ।
श्रीकृष्ण थोड़ी दूर ही थे । से कृष्ण की लीलाओं का अभिनय करती हैं, कृष्ण की खोज में निकलती हैं। उन्हें किसी गोपी के चरणचिह्न के साथ भगवान् के चरणचिह्न दीख पड़ते हैं । उस गोपी को वे कृष्ण की आराधिका समझती हैं, वे कृष्णमय हो उठती हैं, व्याकुल होकर कृष्ण के आने की प्रतीक्षा करती हैं। वे श्रीकृष्ण के पिछले कार्यो का पुण्य स्मरण करती हैं। अमृत के पान से जीवनदान की प्रार्थना करती हैं और फूट-फूट कर रो पड़ती हैं। श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं, गोपियाँ भिन्न-भिन्न मुद्राओं में उनका प्रतिग्रहण करती हैं। श्रीकृष्ण ब्रजबालाओं को साथ लेकर यमुना तीर जाते हैं । यहाँ गोपियों के पूछने पर प्रेम की विभिन्न स्थितियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं—ये स्थितियाँ चार हैं- एक, जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं, उन्हें द्वंस नहीं भासता । दूसरे, वे हैं जिन्हें द्वैल की प्रतीति है, परन्तु वे कृतकृत्य हो चुके हैं। तीसरे, वे है जो यह नहीं जानते कि कौन हमसे प्रेम करता है। चौथे, वे हैं जो हित मा प्रेम करनेवालों से भी ब्रोह करते हैं। कृष्ण कहते हैं- "मैं प्रेम करनेवालों से इसलिए प्रेम नहीं करता क्योंकि मैं चाहता हूँ कि प्रेम करनेवालों की वृत्ति मुझ में लगी रहे। इसीलिए मैं मिलमिलकर छिप जाता हूँ ।" यमुना के किनारे वे रासलीला करते हैं। वे स्वयं दो-दो गोपियों के बी प्रगट हो जाते हैं। प्रत्येक गोपी समझती है कि उनका प्रिय उनके साथ है।
रास के मूल में रस दशब्द है 'रसो वं सः' । रस स्वयं श्रीकृष्ण हैं। जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में परिणत हो जाए वह रास है । इस में वंशीध्वनि गोपियों का अभिसार, श्रीकृष्ण से उनकी बातचीत, रमण राधा के साथ अन्तर्धान, पुनः प्राकट्य गोपियों द्वारा दिए गए वतनासन पर बैठना, कूट प्रश्नों का उत्तर, रासनृत्य, जलकेलि और बन-विहार जैसी अनेक क्रियाएँ सम्मिलित है। श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रामविलास का जो श्रद्धा से बार-बार श्रवण और मनन करता है, उसे पराभक्ति प्राप्त होती है ।
नन्दबाबा अन्य गोपी के साथ जाकर शिवरात्रि के दिन पशुपतिनाथ शंकर और अम्बिकाजी का भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं। एक अजगर नन्द को निगलना चाहता हैं कि तभी भगवान् उसे