Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 20
________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था ।..... यदि हम जैन धर्म साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो 'भगवती सूत्र' के मंखली गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की उपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा, क्योंकि उसमें मंखली गोशालक के चरित्र का निम्नस्तरीय चित्रण है। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग, भगवती तथा पालित्रिपिटक के अनेक ग्रंथ मैखली गोशालक का नियतिवाद के प्रस्तोता के रूप में न केवल उल्लेख करते हैं, अपितु उसका खण्डन भी करते हैं । फिर भी जैन आगम ग्रंथों की अपेक्षा 'सुत्तनिपात' में मैखली गोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है, किन्तु पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रंथ 'सूत्तनिपात' की अपेक्षा भी ऋषिभाषित में उसे अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। अतः धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालित्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है । ९ 18 यदि हम इसी दृष्टि से सुत्तनिपात पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि जितनी उदारता ऋषिभाषित में हैं उतनी उदारता सुत्तनिपात में भी नहीं है । सुत्तनिपात में भी ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों के उल्लेख मिलते हैं जैसे नारद, असितदेवल, पिंग, मंखलीपुत्र, संजय वेलट्ठीपुत्त आदि किन्तु उसमें इन सभी ऋषियों को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है। अतः यह सिद्ध होता है कि ऋषिभाषित ही पालि और प्राकृत साहित्य में एक ऐसा ग्रंथ है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूरी तरह मुक्त है । यदि हम भारतीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन करते हैं तो स्पष्टरूप से यह पाते हैं, कि धार्मिक संप्रदायों के प्रति आग्रहों का विकास एक परवर्ती काल की घटना है। मात्र यही नहीं प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय में भी धार्मिक आग्रह क्रमशः ही दृढभूत होते हैं। अतः यह सुनिश्चित है कि जैन ओर बौद्ध सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त ग्रंथों की अपेक्षा साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त ऋषिभाषित प्राचीन है। यदि हम ऋषिभाषित की भाषा और शैली की दृष्टि से भी विचार करें तो यह पाते हैं कि उसकी भाषा, छन्द, योजना, आदि आचारांग एवं सूत्रकृतांग तथा 'सुत्तनिपात' के अधिक निकट है। भाषा की दृष्टि से ऋषिभाषित अर्धमागधी की रचना है। पुनः इसकी अर्धमागधी, वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य की अपेक्षा प्राचीन स्तर की है। इसमें महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव नगण्य है। यदि हम सुत्तनिपात्त और ऋषिभाषित की भाषा को समानान्तर रूप से परखें तो बहुत अधिक निकटता प्रतीत होती है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की छन्द योजना भी सुत्तनिपात के अधिक निकट है। ऋषिभाषित और सुत्तनिपात के शब्द - रूप संस्कृत शब्दों के जितने निकट हैं उतनी निकटता न तो अर्धमागधी आगम साहित्य के अन्य ग्रंथों के शब्दरूपों में 'इसिभासियाई' भूमिका- डॉ. सागरमल जैन, पृ 4-6 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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