Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 156
________________ 154 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ने उद्दालक के उपदेशों को प्रस्तुत करते हुए अपनी विचार धारा को ही उनके मुख से प्रस्तुत करवा दिया है। यदि हम इसी अध्याय में पद्य रूप में प्रस्तुत उद्दालक के उपदेशों को देखते हैं तो भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि होती है। इस अध्याय की 19वीं गाथा में वे कहते हैं कि “पाँच इन्द्रियाँ, चार संज्ञाएँ, त्रिदण्ड, त्रिशल्य, त्रिगर्व और बाईस परीषह और चार कषाय ये सभी चोर हैं, इसलिए साधक को सदैव जागृत रहना चाहिये।९ पद्य रूप में प्रस्तुत उद्दालक के उपदेशों में मुख्य रूप से कषाय जय के साथ-साथ अज्ञान के निराकरण और आत्म जागृति पर विशेष रूप से बल दिया गया हैं। वे कहते हैं कि प्रतिक्षण जागृत रहो, सोओ मत, क्योंकि जो सोता है वह सुखी नहीं होता, जो जागता है वही सुखी होता है। सजग साधक के सभी दोष उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे दाहभीरू अग्नि को देखकर उससे दूर हो जाता है। उपर्युक्त आधारों पर उद्दालक द्वारा प्रस्तुत मोक्षमार्ग को निम्न तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है(1) अज्ञान का निवारण और ज्ञान की प्राप्ति। (2) प्रमाद का निवारण और आत्म चेतनता की प्राप्ति। (3) इन्द्रियजय और कषाय निवारण। यदि यहाँ हम सम्यक् दर्शन शब्द का आत्म साक्षात्कार परक अर्थ लेते हैं, तो यह कहा जा सकता है कि उद्दालक के साधना मार्ग में जैन धर्म के त्रिविध साधना मार्ग के पूर्व बीज उपस्थित हैं। यह स्पष्ट है कि जैन साधना मार्ग की ऋषिभाषित में प्रतिपादित उद्दालक के साधना मार्ग से बहुत कुछ निकटता है। ३६. तारायण ऋषि की क्रोध-विजय की साधना पद्धति तारायण ऋषि अपने साधना मार्ग के प्रतिपादन में क्रोध विजय पर बल देते हैं। उनके अनुसार "क्रोधाग्नि स्वयं को भी जलाती है और दूसरों को भी जलाती है। क्रोध से युक्त व्यक्ति अर्थ, धर्म और काम तीनों पुरुषार्थों का नाश कर देता है। क्रोध व्यक्ति का ऐसा शत्रु है जो निग्रह किये जाने पर व्यक्ति को विकल बनाता है और छोड़े जाने पर अर्थात् अभिव्यक्त होने पर भस्मीभूत करता है। अतः साधक को क्रोध का शांत करना योग्य है। प्रस्तुत विवेचन में मुख्यतः क्रोध विजय पर ही बल दिया गया है। किन्तु इस संदर्भ में तारायण ऋषि का यह कहना कि निग्रह करने पर क्रोध -इसिभासियाई,35/20 79. पंचिन्दियाई सण्णां, दण्डा सल्लाइं गारवा तिण्णि। बावीसं च परीसह, चोरा चत्तारि य कसाया।। 80. जागरह णरा णिच्चं, जागरमाणस्स जागरति सुतं। जे सुवति ण से सुहिते, जागरमाणे सुही होति।। जागरन्तं मुणिं वीरं, दोसा वज्जेन्ति दूरओ। जलन्त जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो।। -वही, 3523, 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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