Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 164
________________ 162 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पाँच समिति एवं भिक्षा विधि जैन परंपरा में मुनि जीवन के संरक्षक तत्त्वों में अष्ट प्रवचन-माताओं का उल्लेख मिलता है। ये अष्ट प्रवचन माताएँ पांच समिति और तीन गुप्ति के रूप में वर्गीकृत है। ऋषिभाषित के पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में पंच समिति और त्रिगुप्ति का स्पष्ट उल्लेख है।११५ ऋषिभाषित के पच्चीसवें अम्बड़ नामक अध्याय में मुनि जीवन का विवरण प्रस्तुत करते हुए सच्चे श्रमण को त्रिगुप्तियों से गुप्त होता है। वह सद्गति को प्राप्त करता है।११७ यह स्मरण रखना होगा कि मन, वाक् और शरीर के संयम को ही गुप्ति कहा गया है, जो अपने मन, वाणी और शरीर को दुष्प्रवृत्तियों में नही जाने देता, वही त्रिगुप्तियों से गुप्त माना जाता है। यह स्पष्ट है कि जैन परंपरा में ऋषिभाषित में भी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों के योग को ही बन्धन के कारण के रूप में विवेचितं किया जाता है। पारिभाषिक शब्दावली में इन्हें योग कहे हैं।११८ अतः बन्धन से मुक्ति की साधना में इन तीनों का संयम आवश्यक माना जाता है। मन, वाक्, और शरीर का संयम ही त्रिगुप्ति है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि पंचसमिति और तीन गुप्तियों में जहाँ गुप्ति निषेधात्मक मानी गई है, वहाँ समितियों को विधानात्मक कहा जाता है। गुप्ति यह सूचित करती है कि यह नहीं करना चाहिये, जब कि समिति यह बताती है कि ऐसे करना चाहिये। ऋषिभाषित में यद्यपि स्पष्ट रूप से हमें यह उल्लेख नहीं मिलता है कि समितियों की संख्या जितनी है। किन्तु जैन परंपरा में जो पाँच समितियाँ सुप्रसिद्ध हैं-उनमें से तीन समितियाँ ईर्या, भाषा और ऐषणा का स्पष्ट विवरण हमें ऋषिभाषित में मिल जाता है। ऋषिभाषित के पच्चीसवें अध्याय में आहार के ग्रहण करने के छह कारणों की चर्चा करते हुए उसमें इर्या समिति के पालन को भी आहार ग्रहण करने का एक कारण माना गया है।११९ क्योंकि आहार के अभाव में व्यक्ति की शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है। फलतः वह सावधानी पूर्वक अपनी विहार चर्या नहीं कर पाता। मुनि को अपनी विहार चर्चा कैसे करना चाहिये इस संदर्भ में ऋषिभाषित के श्रीगिरि नामक अध्याय में कहा गया है कि साधक सूर्य के साथ गमन करें।१२० अर्थात् वह दिन में ही यात्रा करें, सूर्यास्त होने पर वह कहीं रुक जाय। उसे 115. पंचसमिते तिगत्ते, इसिभासियाई.35 गद्यभाग 116. वही, 25/2 गद्यभाग 117. वही, 25/2 गद्यभाग 118. (अ) "कार्यावाङमनः कर्मयोगः" तत्त्वार्थसूत्रम् 6/1 (ब) इसिभासियाई, 25/2 गद्यभाग (स) वही, 35/गद्यभाग 119. वही, 25/6 गद्यभाग 120. वही, 37/ गाभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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