Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 172
________________ 170 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्तियों के महत्त्व एवं साधना के क्षेत्र में उनकी उपयोगिता को स्वीकार किया गया है फिर भी गुप्तियों का जो विस्तृत विवरण उत्तराध्ययन सूत्र में उपलब्ध है वैसा ऋषिभाषित में नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्याय में गुप्तिायें का विस्तृत विवरण निम्न रूप में उपलब्ध है उसमें कहा गया है कि "साधक को संमरंभ, समारंभ और आरंभ में प्रवृत्त होते हुए मन, वाक् और काया की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना चाहिये। जो साधक पांच समितियों से युक्त होकर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता है और तीन गुप्तियों से गुप्त होकर अशुभ मार्ग से निवर्तित होता है वह शीघ्र ही इस संसार से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ११३७ परीषह 'परीषह' शब्द का तात्पर्य मुनि जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सम्भावपूर्वक सहन करना है। ऋषिभाषित में परीषह शब्द का उल्लेख हमें सर्वप्रथम ऋषिगिरि नामक चौतीसवें अध्याय में उपलब्ध होता है। वहाँ कहा गया है कि प्रज्ञाशील मानव अज्ञानियों द्वारा पांच प्रकार से उदीर्ण किये जाने वाले परीषहों और उपसर्गों को समभवपूर्वक सहन करें। 138 दीनभावों से रहित होकर उन्हें सहन करें और उन्हें सहन करते हुए विचलित न हो। इन परिषहों को किस प्रकार सहन किया जाय, इसका भी विस्तृत विवरण ऋषिगिरि नामक चौतीसवें अध्याय में हमें उपलब्ध होता है। इसमें कहा गया है कि "यदि कोई मूर्ख व्यक्ति किसी की परोक्ष में आलोचना करता है, कठोर वचन कहता है तो प्राज्ञ पुरुष यह विचार करें कि वह परोक्ष में ही मेरी आलोचना करता है।, मेरे सम्मुख तो कुछ नहीं कहता। यदि वह अज्ञानी प्रत्यक्ष में आलोचना करता है, अपशब्द कहता है तो प्राज्ञ पुरुष यह सोचे की शब्दों से मेरी आलोचना ही तो करता है मेरे शरीर को तो कोई कष्ट नहीं दे रहा है। यदि वह शस्त्र आदि से शरीर को पीड़ा पहुँचाता है तो प्राज्ञ पुरुष यह सोचे कि वह मेरे शरीर को ही तो पीड़ा देता है, मेरे प्राणों का तो नाश नहीं करता। मान ले कि वह उसके प्राणों का ही वध कर रहा हो तो ऐसे समय प्राज्ञ पुरुष यह विचार करें कि यह अज्ञानी अपने स्वभाव के वशीभूत होकर मेरे प्राणों का ही तो नाश करता है। मेरे धर्म और साधना को तो नष्ट नहीं कर रहा है।"१३१ तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जनों के द्वारा दिये जाने वाले किसी भी प्रकार के कष्ट को उनके अज्ञानता के प्रति करूणा या क्षमाभाव रखते हुए उस पीड़ा को सहन करें। साधक जीवन में ऐसे अनेक 137. उत्तराध्ययनसूत्र, 24/19-27 138. इसिभासियाई,34/गद्यभाग 139. इसिभासियाई,34/1-5 गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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