Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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अष्टम अध्याय
ऋषिभाषित में वर्णित सामाजिक दर्शन एवं चिन्तन
डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
व्यक्ति के सुधार से समाज सुधार
हम इस तथ्य को पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि सामान्यतया ऋषिभाषित निवृत्तिमार्गी या संन्यासमार्गी की परंपरा का ग्रंथ है, अतः उनके सांस्कृतिक और सामाजिक चिन्तन के जो संदर्भ उपलब्ध हैं, वे मूलतः वैराग्यवादी प्रकृति के हैं। वे मनुष्य को सांसारिक जीवन से विमुख करने के लिए ही है। अतः उसमें समाज - जीवन का यथार्थवादी पक्ष अनुपलब्ध है, मात्र कुछ आदर्शवादी संकेत-सूत्र प्राप्त है । उसमें त्याग और वैराग्य के जो उपदेश उपलब्ध है, उनके आधार पर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में आज की ही भांति व्यभिचार, युद्ध, संघर्ष, चोरी, व्यावसायिक, अप्रमाणिकता आदि अनेक प्रकार के दोष रहे होंगे जिनके निराकरण के लिए एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन के निर्माण के प्रयत्न किये जा रहे थे।
जब ऋषिभाषितकार यह कहता है कि हिंसा नहीं करना चाहिये, झूठ नहीं बोलना चाहिये, चोरी नहीं करना चाहिये अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, तो इससे हम यह फलित निकाल सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संचय की प्रवृत्ति अवश्य उपस्थित रही होगी, क्योंकि तभी तो इनके विरत होने का निर्देश दिया गया। पूर्व अध्यायों में हम इस संबंध में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं कि ऋषिभाषित में अनेक स्थलों पर हिंसा, अप्रामाणिकता, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होने के अनेक संदर्भ है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये सभी मात्र वैयक्तिक जीवन की नहीं, अपितु सामाजिक जीवन की भी बुराइयाँ हैं । इनसे न केवल व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है, अपितु सामाजिक शांति, सामाजिक व्यवस्था भी भंग होती है। वस्तुत: ये सामाजिक बुराइयाँ प्रत्येक युग में रही है। अतः ऋषिभाषित के ऋषियों ने भी अपने युग की इन सामाजिक बुराइयों के निराकरण का प्रयत्न अपने उपदेशों के माध्यम से किया और
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