Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 179
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 177 वे इन बुराइयों से मुक्त स्वस्थ समाज की सरंचना के लिए प्रयत्नशील भी रहे होंगे। यद्यपि ऐसे स्वस्थ समाज की रचना का यह स्वप्न मात्र एक आदर्श या स्वप्न ही कहा जा सकता है, क्योंकि चाहे कितने ही प्रयत्न किये गए हो, समाज इन बुराइयों से कभी भी पूर्णतः मुक्त नहीं हो सका, क्योंकि मनुष्य के अंदर जो पशुत्व बैठा हुआ है उससे पूर्णतया मुक्ति पा लेना सभी मनुष्यों के लिए संभव नहीं है। यह सत्य है कि किसी व्यक्ति विशेष को पूर्णतः रूपान्तरित करना कभी भी संभव नहीं होता, क्योंकि सभी व्यक्ति अपने अंदर बैठे हुए पशु पर विजय प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते। ऋषिभाषित के अध्ययन से एक बात स्पष्ट है वह यह कि ऋषिभाषित के ऋषि समाज सुधार की बात न करके व्यक्ति के सुधार की बात करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे समाजवादी न होकर व्यक्तिवादी हैं। उनकी मान्यता यही रही है कि जब तक व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास नहीं होता है, तब तक समाज को इन बुराइयों से मुक्त नहीं किया जा सकता। अतः वे व्यक्ति-सुधार के आंदोलन के समर्थक माने जा सकते हैं। उनका सामाजिक दर्शन और चिन्तन इसी तथ्य पर आधारित रहा होगा कि व्यक्ति के सुधार से ही समाज का सुधार संभव है। सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का द्वैत वर्तमान युग की सबसे मुख्य बुराई यह है कि व्यक्ति के जीवन में एक दोहरापन है और वह अपने इस दोहरेपन के कारण सामाजिक जीवन में भी वह दोहरे मानदण्डों का प्रयोग करता है। उसमें अपने दोषों को छिपाने और दूसरे के दोषों को प्रकट करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ऋषिभाषित 'अंगिरस' नामक ऋषि इस संबंध में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। ऋषिभाषित के चतुर्थ अंगिरस अध्याय में जो विवरण उपलब्ध है, उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस युग में भी मनुष्य दोहरा जीवन जीते थे और उनके जीवन में एकरूपता नहीं थी। जीवन का यह दोहरापन सामाजिक क्षेत्र में सबसे प्रमुख बुराई कही जा सकती है, क्योंकि इसके कारण एक ओर पारस्परिक व्यवहार में दोहरे मानदण्ड खड़े होते हैं वही कथन और व्यवहार में एकरूपता न होने के कारण परस्पर सन्देह और अविश्वास जन्म लेते हैं, जिससे समाज की शांति भंग हो जाती है, क्योंकि समाज पारस्परिक विश्वास और नैतिक मानदण्डों की एकरूपता पर ही खड़ा होता है। ऋषिभाषित में इस स्थिति पर व्यंग्य करते हुए यह कहा गया है कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते है। जिनका सभा में दूसरा रूप होता है और एकान्त में कुछ दूसरा रूप होता है अर्थात वे करते कुछ है और कहते कुछ है।' अंगिरस ऐसे व्यक्तियों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि वे धर्म के लिए सदा अनुपस्थित है। अर्थात वे समाज व्यवस्था के लिए एक अभिशाप ही सिद्ध होते 1. इसिभासियाई, 4/8 2. वही, 4/9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192