Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 185
________________ 183 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन चाहिये। इस प्रकार ऋषिभाषित ब्राह्मण की व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से करता है। सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसकी चर्चा हम सातवें अध्याय में कर चुके हैं। अत: उसकी यहाँ पुनरूक्ति करना उचित नहीं है। ऋषिभाषित और पुरुषार्थ चतुष्टय ऋषिभाषित में हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों ही पुरुषार्थो का उल्लेख मिलता है।२१ किन्तु श्रमण परंपरा का ग्रंथ होने के कारण इसमें पुरुषार्थ चतुष्टय में से धर्म और मोक्ष को ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह स्पष्ट है कि उसमें अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों को महत्त्व नहीं दिया गया है। न तो वह काम के सेवन को उचित मानता है और न अर्थ के सञ्चय एवं महत्त्व को ही स्वीकार करता है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कामरूपी मृषामुखी कैंची, यद्यपि सामान्य दृष्टि से सुख का अनुकरण करती हुई प्रतीत होती है। किन्तु यह शीघ्र ही व्यक्ति की सुख और शांति का छेदन कर देती है। जिस प्रकार मगर से युक्त सरोवर, विष मिश्रित नारी और सामिष नदी सुख कारक प्रतीत होते हुए भी अंततः दुःखदायी ही होती है, उसी तरह भोगाकांक्षा और वासना की पूर्ति सुखद प्रतीत होते हुए भी मूलतः दु:खद ही होती है।२२ ऋषिभाषितकार का यह स्पष्ट निर्देश है कि कामभोगों के सेवन से चाहे बाह्य रूप से सुख मिलता हो किन्तु वे आध्यात्मिक समाधि और शांति का भंग ही करते हैं। इसी प्रकार अर्थ के संबंध में भी ऋषिभाषित का दृष्टिकोण प्रशस्त नहीं है। उसमें कहा गया है कि बंधन सोने का हो या लोहे का, वह दु:ख का कारण ही होता है। बहुमूल्य वाले दण्ड से मारने पर पीड़ा तो होती है। २३ ऋषिभाषित के अड़तीसवें अध्ययन में सारिपुत्त कहते हैं कि 'अर्थादायी' अर्थात धनलोलुप व्यक्ति को मन को आकर्षित करने वाली मीठी भाषा बोलने वाला समझो। इसका तात्पर्य यह है कि अर्थलोलुप व्यक्ति बाहर से मधुर व्यवहार करता है किन्तु वह अंदर में अहितकारक ही होता है। उसकी अर्थ ग्रहण की इस विसंगतिपूर्ण संतति परंपरा को देखकर धनलोलुप व्यक्ति से दूर ही चलना चाहिये।२४ इस प्रकार ऋषिभाषित में अर्थ और काम दोनों ही पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव ही प्रदर्शित किया गया हैं, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि इसका मूलभूत कारण भी ग्रंथकार की सन्यासीमार्गी जीवन-दृष्टि है। अर्थ और काम दोनों ही सन्यासी के लिए बाधक माने गए हैं, अतः यह स्वाभाविक ही है कि ग्रंथकार इन दोनों पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित करें और धर्म और मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ मानें। 20. वही, 26/6 21. वही, 36/12 22. इसिभासियाई, 45/44, 46 23. वही, 45/50 24. वही, 38/26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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