Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 171
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 169 ऋषिभाषित में त्रिगुप्ति शब्द पच्चीसवें और अम्बड़ नामक अध्याय में और पैतीसवें उद्दालक नामक अध्याय में उपलब्ध होता है। पच्चीसवें अध्याय में आर्यजनों और पापकर्म से विमुक्त व्यक्तियों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि वे चार कषायों से रहित पंच महाव्रतों से युक्त त्रिगुप्तियों से गुप्त और पंच इन्द्रियों से संवृत होते हैं।१३२ इस प्रकार यहाँ साधक की विशेषता के रूप में उसे त्रिगुप्तियों से गुप्त कहा गया है। इसी प्रकार पैतीसवें अध्याय में उद्दालक अपनी साधना की विशेषताओं की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मैं "त्रिदण्ड से रहित और त्रिगुप्तियों से रक्षित हूँ।१३३ ये तीनों गुप्तियाँ कौन सी हैं इसका स्पष्ट निर्देश हमें ऋषिभाषित में नहीं मिलता है, किन्तु जैन परंपरा में तीन गुप्तियों-मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति का जो उल्लेख मिलता है उससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि त्रिगुप्तियों से ऋषिभाषितकार को भी यही तीन गुप्तियाँ अभिप्रेत होगी, यही कहा जा सकता है। यह सुस्पष्ट है कि गुप्ति का तात्पर्य तत्सम्बंधी प्रवृत्तियों का नियंत्रण है। जैन परंपरा में समिति और गुप्ति ये दो शब्द सुप्रचलित हैं। इनमें समिति विधानात्मक है और गुप्ति निषेधात्मक है। अतः गुप्ति का मतलब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को नियंत्रित रखना है। पापमार्ग में जाती हुई मन, वाक्, काय की प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करना ही गुप्ति है। गुप्ति वह सुरक्षात्मक कवच है जिसके द्वारा आत्मा अपने को पापकारी प्रवृत्तियों से बचा सकता है। चाहे ऋषिभाषित में स्पष्ट रूप से मन गुप्ति, वाक् गुप्ति और काय गुप्ति शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में हमें ऐसे निर्देश प्राप्त होते हैं, जिनमें यह कहा गया है कि साधक को अपना मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को दुराचरण के मार्ग मे जाते हुए रोकना चाहिये। ऋषिभाषित के छब्बीसवें मातंग नामक अध्ययन में गुप्ति को लगाम की संज्ञा दी गई है।१३४ जिस प्रकार लगाम कुमार्ग पर जाते हुए अश्व को नियंत्रित करती है उसी प्रकार गुप्ति मन, वाक्, और काय की असन्मार्ग में होती हुई प्रवृत्ति को रोकती है।१३५ उसी अध्याय में यह भी कहा गया है कि अपनी समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्ति का गोपन करता है वही सत्य द्रष्टा है और वही ब्राह्मण है। ऋषिभाषित के तेतलीपुत्र नामक दसवें अध्याय में भी गुप्ति के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "जो गुप्तिवान् है और जितेन्द्रिय है, उसे संसार में एक भी भय नहीं रहता है। जिस प्रकार कछुआ अपने अङगों को समेट करके भय मुक्त हो जाता है उसी प्रकार जितेन्द्रिय साधक अपनी मन, वाक, और काय की प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर भय मुक्त हो जाता है।१३६ 132. इसिभासियाई, 25/2 गद्यभाग 133. वही, 35/गद्यभाग 134. वही, 26/9 135. वही, 26/9 136. वही, 10/गद्यभाग, पृ. 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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