Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 163
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 161 का सेवन नहीं करें, और अपरिग्रही बने।१०८ इस प्रकार यहाँ स्पष्टरूप से पांच महाव्रतों का उल्लेख स्पष्ट है। यह स्मरण रखना चाहिये कि योग परंपरा के पाँच यमों को महाव्रत भी कहा गया है। ऋषिभाषित के चौतीसवें ऋषिगिरि नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से पांच महाव्रत का उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि ब्राह्मण वही है, जो पाँच महाव्रतों से युक्त होता है।१०९ यद्यपि यहाँ वे पांच महाव्रत कौन से हैं यह स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु फिर भी हमारी दृष्टि में ऋषिगिरि का पंच महाव्रतों से तात्पर्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से ही रहा होगा, यह माना जा सकता है। पुनः ऋषिभाषित के पैतालीसवें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट रूप से पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं पाया जाता है किन्तु उसमें पांच महाव्रतों में प्रथम अहिंसा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार शस्त्र, अग्नि आदि के कारण अपने शरीर में दाह और वेदना होती है उसी प्रकार सर्वदेहधारियों को होती है।९९० सभी प्राणी को प्राणघात अप्रिय और दया प्रिय है। अतः साधकों को प्राणघात का त्याग कर देना चाहिये।१११ अहिंसा सभी सत्वों के लिए निर्वेद कारक है, जो अहिंसा से युक्त होता है, उसे देवेंद्र और दानवेंद्र भी नमस्कार करते हैं।११२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में चातुर्याम और पंच महाव्रत के उल्लेख उपलब्ध है। फिर भी यह स्पष्ट है कि उसने अंतिम अध्याय में जो अहिंसा को विशेष महत्त्व दिया है, वह संभवतः इसलिए कि अहिंसा सभी महाव्रतों में प्रथम स्थान पर स्वीकार की गई है। जैनागम दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि महावीर ने अहिंसा का प्रथम स्थान पर उपदेश दिया है।११३ उसके अन्य अध्यायों में सत्य और ब्रह्मचर्य के संदर्भ में भी विशेष उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसमें से सत्य संबंधी विवरण की चर्चा भाषा समिति के प्रसंग में की है। ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह संबंधी विवरण ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में भी उपलब्ध है।११४ यह स्पष्ट है कि चातुर्याम और पंच महाव्रत अथवा पंचयाम की अवधारणाएँ भारतीय चिन्तन की प्राचीनतम अवधारणाएँ है और वे हमें ऋषिभाषित में यथावत रूप से उपलब्ध होती है। -इसिभासियाई, 5/4 108. ण पाणे अतिपातेजा, अलियाऽदिण्णं च वजए। मेहुणं च सेकेजा, भवेज्जा अपरिग्गहे।। 109. इसिभासियाई, 34/5 110. वही, 45/18 111. वही, 45/19 112. वही, 45/20 113. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिया अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्व भूएसु संजमो।। 114. इसिभासियाई, 29/5 -दशवैकालिक, 6/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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