Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 137
________________ 135 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन अज्ञान की कसौटी को भी नैतिकता का आधार बनाता है। वे सभी कर्म जो अज्ञान से प्रसूत हैं, वे सब अनैतिक हैं और इसके विपरीत जो कर्म ज्ञानमूलक हैं, वे दु:ख का प्रहाण करने में समर्थ होने के कारण नैतिक माने जा सकते हैं। गाथापति नामक इक्कीसवें अध्याय में गाथापति पुत्र तरुण ऋषि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ज्ञान मूलक जीव चतुर्गति रूप संसार का नाश कर देते हैं इसलिए में भी अज्ञान का परित्याग करके और ज्ञान को प्राप्त करके सब दुःखों का अत करूँगा और सब दुःखों का अंत करके शिव, अचल और शाश्वतपद में स्थित होउँगा।३° उपर्युक्त कथन में ज्ञान से दु:खों का नाश होता है यह कह कर पाश्चात्य नैतिक दर्शन का सुखवादी और बुद्धिवादी परंपराओं के बीच समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। यह सत्य है कि हम कर्म परिणाम की दृष्टि से विचार करें तो वे सभी कर्म जो दु:खद है अनैतिक है और वे सभी कर्म जो सुखद है नैतिक हैं। किन्तु यदि हम कर्म प्रेरक की दृष्टि से विचार करते हैं तो वे सभी कर्म जो अज्ञानजन्य ममत्व या आसक्ति से निश्रित होते हैं अनैतिक माने जायेंगे और इसके विपरीत जो कर्म अनासक्ति, निर्ममत्व और ज्ञानपूर्वक किये जाते हैं, वे नैतिक कहे जाते हैं। पाश्चात्य नैतिक दर्शन में कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी को लेकर एक दृष्टिकोण यह है कि जिस कर्म को समाज का समर्थन प्राप्त है वह नैतिक है और जो कर्म समाज के द्वारा अमान्य किया गया है वह अनैतिक है किन्तु ऋषिभाषित नैतिकता की इस कसौटी को मान्य नहीं करता है, ऋषिभाषित के सातवें अध्याय में कूर्मापुत्र स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जनवाद त्राता नहीं हो सकता क्योंकि दुराचरण हमारी समाधि का नाश करता है।" चाहे कोई कर्म जन साधारण के द्वारा अनुमोदित हो किन्तु यदि वह व्यक्ति की चित्त समाधि को भंग करता है तो वह कूर्मापुत्र की दृष्टि में अनैतिक ही माना गया है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जो दुरित आचरण करते हैं वे समाधि का नाश करते हैं।३२ ऋषिभाषित के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज की समाधि या शांति में साधक हैं, वे नैतिक हैं और वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज में अशांति उत्पन्न करते हैं, वे अनैतिक हैं। वस्तुतः सभी श्रमण परंपराएँ समत्व या समाधि को ही नैतिकता की कसौटी मानकर चलती हैं। आचारांगसूत्र में तो धर्म को परिभाषित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "आर्यजनों ने समभाव में धर्म कहा है।"३३ समभाव अर्थात् समाधि में जो भी साधक बनता है वह सब आचरण नैतिक आचरण की कोटि - 30. इसिभासियाई, 21/गद्यभाग पृ. 78 31. जणवादो ण ताएज्जा अच्थित्तं तवसंजमे। समाधिं च विराहेति, जे रिटठचरियं चरे।। 32. वहीं, 7/1 33. सम्यिाए धम्मे, आयरिएहिं पवेइए। -'इसिभासियाई' 7/2 -आचारांगसूत्र 5/3 उद्देशक www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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