Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 143
________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 141 ही जिसका रथ है, ज्ञान और दर्शन जिसके सारथी है। ऐसे रथ पर आरूढ होकर आत्मा अपने आत्मस्वभाव को उपलब्ध होता है । १९ उनके उपर्युक्त कथन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अंगिरस के अनुसार ज्ञान, दर्शन और शील ये तीनों ही मोक्ष के मार्ग है। जैन दर्शन में जिस दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का तथा बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा रूप निर्वाण मार्ग का उल्लेख है, उसका ही पूर्व संकेत अंगिरस के उपदेशों में है। ५. पुष्पशाल ऋषि द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग पुष्पशाल ऋषि के अनुसार "हिंसा, असत्य (झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तथा क्रोध, मानादि कषायों से विरत तथा विनय गुण संपन्न व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है । "१० इस प्रकार उन्होंने कषाय-जय और पंच महाव्रती के पालन की आवश्यकता माना है। ये दोनों बाते जैन दर्शन में भी स्वीकृत रही है । पुष्पशाल अपने मोक्ष मार्ग के प्रतिपादन में दो तथ्यों को आवश्यक मानते हैं-- एक तो आत्म पर्यायों का द्रष्टा होना और दूसरा विनय का पालन करना । यहाँ आत्मपर्यायों के दृष्टा होने का तात्पर्य है- आत्मसाक्षी या आत्मदृष्टा होना है या अपने विचारों और भावनाओं के प्रति सजग होना । विनय - पालन का तात्पर्य है - आचार के नियमों का पालन करना । ६. वल्कलचीरी का साधना मार्ग वल्कलचीरी के अनुसार अज्ञान ही सबसे बड़ा बंधन है, अतः मुक्ति के लिए ज्ञान साधना आवश्यक है। वे कहते हैं कि ज्ञानांकुश के बिना आत्मा मोक्ष मार्ग में गतिशील नहीं हो सकता है।" उनकी दृष्टि में " अनासक्ति और ज्ञान, यही मोक्ष का मार्ग है । १२ ७. कुर्मापुत्र द्वारा उपदिष्ट साधना मार्ग कुर्मापुत्र के अनुसार " दुराचरण ही समाधि का नाश करता है । ११३ किन्तु समाधि के प्राप्ति के लिए इच्छा और आकांक्षाओं से ऊपर उठना आवश्यक है, क्योंकि “निरकांक्ष व्यक्ति ही समाधि या आध्यात्मिक आनंद को प्राप्त कर सकता है ९४ अतः समाधि की प्राप्ति के लिए कामनाओं का परित्याग आवश्यक है और कामनाओं का यह परित्याग केवल आत्मचेतनता अथवा अप्रमत्तता के द्वारा ही संभव ११४ 9. इसि भासियाई, 4 / 24 10. वही, 5 / 2-4 11. वही, 6/2 12. वही, 6/1 13. वही, 7/1 14. वही, 7/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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