Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 142
________________ 140 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १. नादर ऋषि द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग नारद ऋषि के अनुसार शौच ही मोक्ष का प्रदाता है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि शौच अर्थात् पवित्रता से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। यद्यपि पवित्रता या शौच से उनका तात्पर्य शारीरिक शुद्धि न होकर मनोवृत्ति की शुद्धि से हैं। शौच के लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने अहिंसा, सत्य, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को ही शौच कहा है। किन्तु अंत में सत्य, दत्त (अचौर्य) और ब्रह्मचर्य की साधना को भी मुक्ति का मार्ग कहा है।' | २. वज्जियपुत्त द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग वज्जियपुत्त के अनुसार व्यक्ति अपने अज्ञान या मोह के कारण ही बंधन में है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "जन्म मरण, दुःख, अनिर्वाण तथा कर्म संतति, इन सभी का कारण मोह है और इस मोह के मूल में व्यक्ति का अज्ञान रहा हुआ है। अतः इस मोह का विनाश ही विमुक्ति है।"५ ३. असितदेवल द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग असितदेवल के अनुसार हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि को लेप कहा गया है अर्थात् ये ही आत्मा के बंधन है। अतः मोक्ष के लिए इन लेपों (पाप कर्मों) से विमुक्ति आवश्यक मानी गयी है, किन्तु इस चर्चा के प्रसंग में असितदेवल यह मानते हैं कि इन समस्त पापकर्मों के मूल में मोह और आसक्ति के तत्त्व रहे हुए हैं। अत: मोह या आसक्ति का परित्याग आवश्यक है। वे कहते हैं कि "जो राग-द्वेष और मोहासक्ति का परिज्ञाता होता है। वही जन्म-मरण का नाश कर सिद्धि को प्राप्त होता है। इस प्रकार असितदेवल एक ओर ज्ञान को, तो दूसरी ओर संयम को मुक्ति का आवश्यक साधन मानते हैं। ४. अंगिरस ऋषि का साधना मार्ग अंगिरस, बंधन और मुक्ति का संबंध बाह्य घटनाओं से न जोड़कर मनुष्य की मनोवृत्ति पर निर्भर करते हैं। उनके अनुसार "व्यक्ति स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता होता हैं। अत: उनकी दृष्टि में ज्ञान मुक्ति का आवश्यक अंग है और यह ज्ञान-आत्मस्वभाव में जागृत रहने की स्थिति है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि “शील 2. इसिभासियाई, 1/1 गद्यभाग वही, 1/2 गद्यभाग वही, 1/3 गद्यभाग 5. वही, 27,8 6. वही,3/12 वही, 3/11 8. वही, 4/12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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