Book Title: Ratnatray Vidhan Author(s): Rajmal Pavaiya Publisher: Tirthdham Mangalayatan View full book textPage 8
________________ श्री रत्नत्रय विधान T दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज़ शुद्ध स्वभाव।" रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का क़रूँ अभाव ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय मोक्षफलप्राप्ताय फलं नि. स्वाहा।' दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूँगा मैं अनादि का घाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य नि. स्वाहा। - महार्घ्य (ताटंक) अष्ट अंगयुत निर्मल. सम्यक् दर्शन मैं धारण कर लूँ। आठ अंगयुत निर्मल सम्यक ज्ञान आत्मा में भर लूँ॥ तेरह विध सम्यक् चारित्र पा मुक्ति भवन में पग धर लूँ। श्री अरहंत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनंत सौख्य वर लूँ॥ निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्षमार्ग पर आ जाऊँ। निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ परिणामों पर जय पाऊँ।। एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान। ध्रुव टंकोत्कीर्ण चिन्मय चिच्चमत्कार चिद्रूपी यान ॥ इसका ही आश्रय लेकर मैं सदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्य दृष्टि बन निजस्वरूप की महिमा से शिव सुख पाऊँ । रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्मा का ध्यान करूँ। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित्र से परम स्वपद निर्वाण वरूँ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्माय महाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा ) निज रत्नत्रय धर्म ही, परम सौख्य दातार। मंगलमय विज्ञान यह, कर देता भव पार ॥Page Navigation
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