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. श्री रत्नत्रय विधान
मनोगुप्ति है सब विभाव भावों का हो मन से परिहार।। वचनगुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन संवार ॥ काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भावमय 'कायोत्सर्ग। तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते हैं शिवमय अपवर्ग ॥ षट् आवश्यक द्वादश तप पंचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पंचाचार विनय आराधन द्वादश व्रत आदिक सुखतम ॥ अट्ठाईस मूलगुण धरकर सप्त भयों से रहना दूर। निजस्वभाव आश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर।। निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण॥ श्रेष्ठधर्म है श्रेष्ठ मार्ग है श्रेष्ठ साधु पद शिवसुखकार। सम्यक् चारित्र बिना न कोई हो सकता भवसागर पार ।। तीर्थंकरभी धारण करते हैं सम्यक्चारित्र महान।
चारित्तं खलु धम्मो द्वारा पा लेते हैं पद निर्वाण ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधअंगयुत सम्यक्चारित्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
आशीर्वाद
(दोहा) '. अविरति पूरी क्षय करूँ, धर सम्यक् चारित्र । संयम के द्वारा बनूं, पावन परम पवित्र ॥
इत्याशीर्वाद