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श्री रत्नत्रय विधान
दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥४ ॥ ॐ ह्रीं श्री आदाननिक्षेपणसमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. 'स्वाहा । प्रतिष्ठापना समिति पालकर जीवों की रक्षा कर नाथ । मलमूत्रादिक तन मल त्यागूँ देखभाल कर त्रिभुवन नाथ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री प्रतिष्ठापनसमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
त्रय गुप्ति संबंधी अर्घ्य
मनोगुप्ति हो मन चंचलता नाश करूँ निज हित के काज । अन्य विचार न जागे उर में ज्ञान भाव ही हो जिनराज ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । वचन गुप्ति हो सम्यक् प्रभुजी पूर्ण मौन हो हितकारी ।
लूं तो हितमित प्रिय बोलूँ सब जीवों को सुखकारी ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
काय गुप्ति है जड़ काया की चंचलता मैं नष्ट करूँ । पद्मासन खडगासन आदिक ही आसन उत्कृष्ट धरूँ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥३ ॥ ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।