Book Title: Ratnatray Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Tirthdham Mangalayatan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरत्रचिधान सम्यक्रचारित्र सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः श्री सिद्धेभ्यः रत्नत्रय विधान रचनाकार कविवर राजमल पवैया भोपाल प्रकाशन सहयोग .. • श्री आनन्दीलाल जयन्तकुमार जैन आनन्द मैडीकल परिवार, रतलाम प्रकाशक: तीर्थधाम मङ्गलायतन. श्री आदिनाथ-कुन्दकुन्द-कहान दिगम्बर जैन ट्रस्ट सामनी - 204216, हाथरस (उत्तरप्रदेश) भारत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रकाशकीय मङ्गलायतन विश्वविद्यालय, अलीगढ़ में नवनिर्मित श्री महावीर जिनमन्दिर के पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर आयोजित होनेवाले पूजन-विधान की श्रृंखला में रत्नत्रय-विधान का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। . इस विधान के रचयिता कवि राजमल पवैया, भोपाल एक सिद्धहस्त कवि हैं, जिन्होंने अनेक विधानों, पूजनों एवं भजनों की रचना करके जिनवाणी के कोश को समृद्ध किया है। आपकी लेखनी में जहाँ भक्ति की तरलता विद्यमान रहती है, वहीं अध्यात्म की गम्भीरता भी पायी जाती है। इस विधान की पुस्तक के प्रकाशनकर्ता के रूप में श्री आनन्दीलाल जयन्तकुमार जैन, आनन्द मैडीकल परिवार, रतलाम द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए हम आभारी हैं। सभी जीव रत्नत्रय विधान के माध्यम से निज शुद्धात्मा को पहचानकर अपनी परिणति में रत्नत्रय प्रगट करते हुए मुक्तिमार्ग की आराधना करें -. इसी पवित्र भावना के साथ। पवन जैन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान - - श्री रत्नत्रय विधान मंगलाचरण (अनुष्टुप) मंगलं सिद्ध परमेष्ठी, मंगलं तीर्थकरम् । मंगलं शुद्ध चैतन्यं, आत्म धर्मोस्तु मंगलम् ॥ (दोहा) मंगलं दर्शनं ज्ञानं, चारित्रं रत्नत्रयम् । मंगलं कल्याणमस्तु, नव विधान सुमंगलम् ।। (चामर) वीतराग श्री जिनेन्द्र ज्ञानरूप मंगलम् । गणधरादि सर्वसाधु ध्यानरूप मंगलम् ॥ आत्मधर्म वस्तुधर्म सार्वधर्म मंगलम् | वस्तु का स्वभाव ही अनद्यानंत मंगलम् ।। मोक्ष प्राप्ति का उपाय रत्नत्रय मंगलम् । दिव्य ज्ञानपति प्रधान आत्मेश मंगलम्॥ भाव द्रव्य लिंग मुनि स्वरूप शुद्ध मंगलम् । आत्म अनुभूति शुद्ध रत्नत्रय मंगलम् ॥ (दोहा) जयति पंच परमेष्ठी जिन प्रतिमा जिन धाम । जय जगदम्बे दिव्य ध्वनि श्री जिन धर्म प्रणाम ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान पीठिका (रोला ) सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रमयी रत्नत्रय । यहीं मुक्ति सोपान तीन हैं पवित्र शिवमय ॥ यही मुक्ति का मार्ग एक है भवदुःखहारी। यही भव्य जीवों को है उत्तम सुखकारी ॥ है पच्चीस दोष से विरहित सम्यग्दर्शन | आठ अंगयुत सम्यग्ज्ञान श्रेष्ठ ज्ञानधन || - तेरहविध चारित्र शुद्ध शिवसुख का साधन । दर्शन ज्ञान चारित्र दिव्य त्रिभुवन में धन-धन ॥ तीर्थंकर भी इसको धारण कर हर्षाते । . इसके द्वारा भवसागर तर शिवसुख पाते || निश्चय निर्विकल्प रत्नत्रय शिवसुखदायी । रत्नत्रय व्यवहार मात्र है सुर सुखदायी ॥ अब तक जो भी सिद्ध हुए उनको है वन्दन । वर्तमान में जो हो रहे हैं उन्हें अभिनन्दन ॥ आगे भी जो होंगे सिद्ध उन्हें अभिनन्दूँ । भूत भविष्यत् वर्तमान सिद्धों को वन्दू || ( मानव ) मुनि पंचमहाव्रत धारी रत्नत्रय से हो भूषित ! रत्नत्रयनिधि को पाकर होते न कभी फिर दूषित ॥ रत्नत्रय भवदुःखघाता रत्नत्रय शिवसुखदाता | रत्नत्रय की महिमा से ध्रुव सिद्ध स्वपद मिल जाता ॥ प्रभु महावीर की वाणी रत्नत्रय निधि दर्शाती । जो भी भव्यात्मा होते उनको ही सतत सुहाती है ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान । श्री रत्नत्रय विधान समुच्चय पूजन स्थापना (ताटंक) प्रभु रत्नत्रय को आह्वानन कर अंतर में पधराऊँ । रत्नत्रय सन्निकट होऊँ मैं पूजन कर ध्रुव सुख पाऊँ ॥ निरतिचार रत्नत्रय पालू निज स्वरूप को ही ध्याऊँ। मंगलमय विधान करके प्रभु आत्मशान्ति उर में लाऊँ ॥ (दोहा) भाव सहित पूजन करूँ, रत्नत्रय की आज/- . रत्नत्रय की कृपा से, पाऊँ निजपद राज॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (वीरछन्द) सम्यक् शुद्ध सहज जल द्वारा मिथ्याश्रम प्रभु दूर हटाव । जन्म मरण का क्षय कर डालूँ साम्य भाव रस मुझे पिलाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। शुभ भावों का चंदन घिस-घिस निज से किया सदा अलगाव । भव ज्वाला शीतल हो जाये ऐसी आत्म प्रतीति जंगाव । दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव । | ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान . . , भव समुद्र की भंवरों में फंस टूटी अब तक मेरी नाव । पुण्योदय से तुम सा नाविक पाया. मुझको पार लगाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूंजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् नि. स्वाहा। काम क्रोध मद मोह लोभ से मोहित हो करता परभाव । दृष्टि बदल जाये तो सृष्टि बदल जाये यह सुमति जगाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा। पुण्य भाव की रुचि में रहता इच्छाओं का सदा कुभाव। क्षुधारोग हरने को केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन, करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। ज्ञान ज्योति बिन अंधकार में किये अनेकों विविध विभाव । आत्मज्ञान की दिव्यविभा से मोहतिमिर का करूँ अभाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥. ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। घातिकर्म ज्ञानावरणादिक निज स्वरुप घातक दुर्भाव। ध्रुव स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो अष्टकर्म से मुझे बचाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं नि. स्वाहा। निज श्रद्धाज्ञान चरितमय निज परिणति से पा निज ठाँव। महामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान T दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज़ शुद्ध स्वभाव।" रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का क़रूँ अभाव ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय मोक्षफलप्राप्ताय फलं नि. स्वाहा।' दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूँगा मैं अनादि का घाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य नि. स्वाहा। - महार्घ्य (ताटंक) अष्ट अंगयुत निर्मल. सम्यक् दर्शन मैं धारण कर लूँ। आठ अंगयुत निर्मल सम्यक ज्ञान आत्मा में भर लूँ॥ तेरह विध सम्यक् चारित्र पा मुक्ति भवन में पग धर लूँ। श्री अरहंत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनंत सौख्य वर लूँ॥ निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्षमार्ग पर आ जाऊँ। निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ परिणामों पर जय पाऊँ।। एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान। ध्रुव टंकोत्कीर्ण चिन्मय चिच्चमत्कार चिद्रूपी यान ॥ इसका ही आश्रय लेकर मैं सदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्य दृष्टि बन निजस्वरूप की महिमा से शिव सुख पाऊँ । रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्मा का ध्यान करूँ। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित्र से परम स्वपद निर्वाण वरूँ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्माय महाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा ) निज रत्नत्रय धर्म ही, परम सौख्य दातार। मंगलमय विज्ञान यह, कर देता भव पार ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान (मानव) अविलम्ब मुक्ति सुख पाने दृढ़ उर प्रगटाऊँ। परिपूर्ण ज्ञान गुण द्वारा भव दुःख सारे विघटाऊँ ॥ चारों गति के दुःख क्षय हित सम्यकचारित्र धरूँ। भव विजय सर्व करने को रत्नत्रय उर लाऊँ मैं ।।.. पहिले मिथ्यात्व हरूँ मैं जो भव बंधन कारी है। ले भेद ज्ञान अवलंबन सम्यक्त्व गीत ही गाऊँ। दूजे अविरति को जीतूं लूँ एकदेश व्रत संयम। तीजे प्रमाद जय करके परिपूर्ण स्वसंयम पाऊँ । चौथे कषाय को जीतूं घातिया नाश करने को। क्षय सर्व कषायें करने उर यथाख्यात गुण लाऊँ॥ श्रेणी चढ़ने पर ही तो प्रभु यथाख्यात मिलता है। दृढ़ यथाख्यात पाने को अब शुक्ल ध्यान ही ध्याऊँ। पंचम जीतूं योगों को हो जाऊँ त्वरित अयोगी। क्षयहित अघातिया चारों निजअनुभव हृदय सजाऊँ॥ ये ही हैं पाँचों प्रत्यय जो बंध भाव के कारण। पाँचों ही प्रत्यय जयकर परिपूर्ण मोक्ष सुख पाऊँ ॥ मैं भी रत्नत्रय धारूँ दो शक्ति यही हे स्वामी। ध्रुव सिद्ध स्वपद निज पाऊँ यह सुन लो अन्तर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रस्वरूपरत्नत्रयधर्माय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। आशीर्वाद (दोहा) रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की, महिमा अगम अपार । जो यह व्रत धारण करे, हो जाये भव पार॥ इत्याशीर्वाद Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय विधान - - - श्री सम्यक् दर्शन पूजन स्थापना (सोरठा) सम्यक् दर्शन पूर्ण, हर लेता मिथ्यात्व सब। भव्य भावना पूर्ण, मोक्ष प्रदायक श्रेष्ठ है। पूजू मन वच काय, सम्यक् दर्शन भावमय। करूँ आत्म कल्याण, यही सुमति दो हे प्रभो॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (ताटंक) सम्यक् नीर प्राप्त करने को ध्यान लगाऊँ निज स्वामी। जन्म मृत्यु भय क्षय करने को स्वबल जगाऊँ हे स्वामी॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है | ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। समकित,चंदन की गरिमा से शोभित हो जाऊँ स्वामी। भव आतप ज्वर क्षय करने को शुद्ध भाव लाऊँनामी॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा सम्यक् अक्षत भावमयी ला भवदधि तर जाऊँ स्वामी। अक्षय पद अखंड निज पाऊँ निजानंद पाऊँ नामी॥ - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान 'सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री. सम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् पुष्प शील गुण भूषित तुम्हें चढ़ाऊँ हे स्वामी। कामबाण पीड़ा को नायूँ पद निष्काम वरूँ नामी ॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् अनुभव रस चरु लाऊँ क्षुधा व्याधि नाथू स्वामी। चिर अतृप्ति को नष्ट करूँ मैं परम तृप्ति पाऊँ नामी॥ सम्यक दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् दीप प्रभा से मिथ्याभ्रम तम चूर्ण करूँ नामी। मोह तिमिर अज्ञान विपर्यय संशय सब नारों स्वामी॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् धूप चढ़ाऊँ पावन शुक्ल ध्यान वाली नामी। अष्टकर्म अरिध्वंस करूँ मैं कर्म रहित होऊँ स्वामी ॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्ध भाव फल महामोक्ष सुख नित्य निरंजन दो स्वामी। यही प्राप्त करना है मुझको विनय सुनो अन्तर्यामी॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। धर्म शुक्ल दोनों ध्यानों के अर्घ्य बनाए हैं स्वामी। पद अनर्घ्य की प्राप्ति करूँ मैं विनय यही अन्तर्यामी ।। सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्दर्शन के अष्ट अंगसम्बन्धी अर्घ्य (सार जोगीरासा ) शंका दोष विहीन बनूँ मैं निर्मल समकित धारूँ। तत्त्वाभ्यास करूँ नित स्वामी आत्मस्वरूप विचारूँ ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ। सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री निशंकित-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। कांक्षादोष तर्जे हे स्वामी निर्मलता उर धेर लूँ। भवसुख की इच्छाएँ सारी हे प्रभु मैं सब हर लूँ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनंशाऊँ ॥२ ॥ ॐ ह्रीं श्री निकांक्षित-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। विचिकित्सा का दोष त्याग दूं समकित ह्रदय सजाऊँ। ऋषि मुनियों की वैय्यावृत्ति में अपना ध्यान लगाऊँ॥ अष्ट दोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री निर्विचिकित्सा-अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान १० अनूपगूहनदोष त्यागकर गुण सबके प्रगटाऊँ । ऋषि मुनि श्रावक सबके दोषों को न कभी प्रगटाऊँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥४ ॥ ॐ ह्रीं श्री उपगूहन- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । मूढ़ दृष्टियुत दोष विनायूँ सकल मूढ़ता नार्थौ । निज शुद्धात्मतत्त्व की महिमा पाऊँ ज्ञान प्रकाशँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥५ ॥ ॐ ह्रीं श्री अमूढ़दृष्टि- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । जिनपथ से जो डिगते हों मैं उनको सुथिर बनाऊँ । धर्मेजन की सेवा करके अपना धर्म निभाऊँ ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी, सर्वदोष विनशाॐ ॥ ६ ॥ ७. ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरण- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । साधर्मी वात्सल्य न भूलूँ प्रीति करूँ मैं मन से । मुनि अरु श्रावक संघ की सेवा करूँ मैं तन-मन-धन से ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यग्दर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥७ ॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्य- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीजिनधर्म प्रभाव करूँ मैं शुद्ध आचरण द्वारा । जिनश्रुत ज्ञानदान आदि से दूर करूँ अंधियारा ॥ अष्टदोष से विरहित होकर सम्यदर्शन पाऊँ । सम्यक् श्रद्धापूर्वक स्वामी सर्वदोष विनशाऊँ ॥८ ॥ ॐ ह्रीं श्री प्रभावना - अंगयुतसम्यग्दर्शनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ श्री रत्नत्रय विधान जयमाला ( दोहा ) : सम्यक दर्शन बिन नहीं, स्वपर भेद - विज्ञान | रत्नत्रय का मूल यह, महिमामयी महान | ( वीरछन्द ) आत्मतत्त्व की प्रतीति निश्चय सप्ततत्त्व श्रद्धा व्यवहार | सम्यक्दर्शन से हो जाते भव्य जीव भव सागर पार ॥ विपरीताभिनिवेशरहित अधिगमज निसर्गज समकित सार । औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार आर्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप अर्थविस्तार । समकित है अवगाढ़ और परमावगाढ़ दश भेद प्रकार ॥ जिन वर्णित तत्त्वों में शंका लेश नहीं निःशंकित अंग । सुरपद या लौकिक सुख वांछा लेश नहीं निकांक्षित अंग ॥ पदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निर्विचिकित्सा अंग । देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओं में रुचि अमूढदृष्टि सुअंग ।। पर दोषों को ढकना. स्वगुण वृद्धि करना उपगूहन अंग । धर्ममार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरण सुअंग ॥ साधर्मी में गोवत्स सम पूर्ण प्रीति वात्सल्यः सुअंग । जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावना अंग ॥ आठ अंग पालन से होता है सम्यक् दर्शन निर्मल | सम्यक् ज्ञान चारित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥ शंका कांक्षा विचिकित्सा अरु मूढ़दृष्टि अनूपगूहन । ' 'अस्थितिंकरण अवात्सल्य अप्रभावना वसु दोष सघन ।। 1 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JJ श्री रत्नत्रय - विधान कुगुरु कुदेव कुंशास्त्र और इनके सेवक छः अनायतन | देव मूढ़ता गुरु मूढ़ता लोक मूढ़ता तीन जघन || जाति रूप कुल ऋद्धि तपस्या पूजा शक्ति ज्ञान मद आठ । मूल दोष सम्यक् दर्शन के यह पच्चीसों तजो विराट || जय जय सम्यक्दर्शन आठों अंग सहित अनुपम सुखकार । यही धर्म का सुदृढ़ मूल है इसकी महिमा अपरम्पार ।। मोक्ष महल की पहिली सीढ़ी पावन परम पवित्र प्रधान । कुन्दकुन्द ने यही कहा है दंसण मूलो धर्म महान || ॐ ह्रीं श्री अष्ट- अंगयुतसम्यग्दर्शनाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । आशीर्वाद (दोहा) - सम्यक् दर्शन प्राप्तकर, करूँ आत्म कल्याण । निज स्वभाव की शक्ति से, पाऊँ पद निर्वाण ॥ इत्याशीर्वाद १२ मंत्र जपो नवकार मनुवा, मंत्र जपो नवकार । पंच प्रभु को वन्दन करलो, परमेष्ठी सुखकार ॥ टेक ॥ अरहंतों का दर्शन करके, शुद्धात्मा का परिचय करलो । शिवसुख साधनहार मनुवा, मंत्र जपो नवकार ॥१ ॥ सब सिद्धों का ध्यान लगालो, सिद्धसमान स्वयं को ध्यालो । मंगलमय सुखकार मनुवा, मंत्र जपो नवकार ॥२॥ आचार्यों को शीश नवाओ, निर्ग्रन्थों का पथ अपनाओ । मुक्तिमार्ग आराध मनुवा, मंत्र जपो नवकार ॥३ ॥ उपाध्याय से शिक्षा लेकर, द्वादशांग को शीश नवाकर । जिनवाणी उर धार मनुवा, मंत्र जपो नवकार ॥४॥ सर्व साधु को वंदन करलो, रत्नत्रय आराधन करलो । जन्म-मरण क्षयकार मनुवा, मंत्र जपो नवकार ॥५ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ॐ + *Is VAIM श्री रत्नत्रय विधान श्री सम्यक् ज्ञान पूजन स्थापना ( गीतिका ) प्रभो सम्यग्ज्ञान की पूजन करूँ शुभभाव से । त्वरित: ही अज्ञान नाशँ जुइँ आत्मस्वभाव से ॥ मोहजन्य कुबुद्धि क्षय कर दूँ प्रभो निज ज्ञान से । पूर्ण केवलज्ञान पाऊँ आत्मा के ध्यान से ॥ ज्ञान का आवरण नार्थौ दर्शनावरणी हरूँ । मोह क्षयकर अन्तराय विनाश स्वचतुष्टय वरूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञान अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । 1 (सार जोगीरासा ) ज्ञान स्वभावी शीतल जल से मैं अज्ञान विनायूँ । त्रय रोगों की पीड़ा हरने आत्म स्वभाव विकासूं ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी । मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। सर्वोत्तम चंदन निज लाऊँ सम्यक् ज्ञान स्वरूपी । भवाताप हरने में सक्षम सहजानंद अनूपी ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी । मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ, निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ! Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान अक्षत उत्तम ज्ञान प्रकट कर अक्षय पद प्रभु पाऊँ । एक अखंड अभेद आत्मा ही मैं प्रतिपल ध्याऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शील स्वगुणमय सम्यक् ज्ञान कुसुम की महिमा न्यारी। काम व्याधि विध्वंसक पावन महके निज फुलवारी॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। अनुभव रस निर्मित चरु लाऊं शाश्वत तृप्ति प्रदाता। क्षुधारोग-विध्वंसक उत्तम निरुपम सुख के दाता ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् ज्ञान प्रदीप प्रजाखू मोह तिमिर भ्रम नारों। घाति चार क्षय करके प्रभु जी केवल ज्ञान प्रकायूँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ध्यान धूप का बल पाकर मैं आठों कर्म जलाऊँ । नित्य निरंजन पदवी पाऊँ धर्म मार्ग पर आऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ श्री रत्नत्रय विधान ज्ञान सुतरु की छाया मैं आ श्रेष्ठ मोक्ष फल पाऊँ । अपुर्न भव प्रगटा स्वामी पूर्ण आत्म सुख पाऊँ ॥ भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। अर्घ्य बनाऊँ भावमयी मैं निज गुण चिन्तन करके । स्वपद अनर्घ्य प्रकट कर लूँ मैं सारे भव दुःख हरके || भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक होऊँ सम्यक् ज्ञानी। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर होऊँ निज ध्रुवध्यानी॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्ज्ञान के अष्ट अंग सम्बन्धी अर्घ्य (वीरछंद) . कुमति कुज्ञान विनाश करूँ मैं सुमति बनाऊँ परम पवित्र । प्रभु व्यंजनाचार अंग पा लखू स्वयं के चित्र ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री व्यजंनाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्रुत कुज्ञान दोष मैं नायूँ जिन श्रुत ज्ञानी बन जाऊँ। अर्थाचार समझकर पालूँ सम्यक ज्ञानी हो जाऊँ ॥ सम्यक ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान। रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री अर्थाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । कुअवधि युत अज्ञान विनायूँ सम्यक् ज्ञान सहज पालूँ। सम्यक् उभयाचार अंग को ज्ञान सहित उर में ढालूँ ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥३॥ | ॐ ह्रीं श्री उभयाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान १६ मैं मति ज्ञान प्राप्त कर स्वामी सम्यक् ज्ञान पूर्ण पाऊँ। कालाचार अंग पालन कर समयसार मय हो जाऊँ ।। . सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री कालाचारचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा मैं श्रुतज्ञान पूर्णतः पालुं सम्यक् ज्ञानी हो जाऊँ । विनयाचार अंग मैं पालूँ पूर्ण ज्ञान वैभव पाऊँ ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री विनयाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। अवधि ज्ञान पाऊँ प्रभु सच्चा सम्यक् ज्ञानी हो जाऊँ। उपधानाचारी बनकर मैं ज्ञान स्वनिधि निज प्रगटाऊँ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री उपधानाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मनःपर्यय ज्ञानी हो जाऊँ हो जाए फिर पूरा ज्ञान । बहुमानाचार अंग युतः हो जाऊँ मैं ज्ञान प्रधान ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | 15 रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री बहुमानाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। के वलज्ञान पूर्ण प्रगटाऊँ प्रभु सर्वज्ञ दशा पाऊँ । मैं आचार अनि पालूँ परम सौख्यपति बन जाऊँ । सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ||८|| ॐ ह्रीं श्री अनिवाचार अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ श्री रत्नत्रय विधान जयमाला (दोहा) सम्यक् ज्ञान महान का, आश्रय लूँ भगवान। . पाऊँ केवल ज्ञान प्रभु, करूँ कर्म अवसान || (वीरछंद) निजं अभेद का ज्ञान सुनिश्चय आठ भेद सब हैं व्यवहार। सम्यक् ज्ञान परम हितकारी शिव सुखदाता मंगलकार ॥ अक्षर पद वाक्यों का शुद्धोच्चारण ही है व्यंजनाचार । शब्दों के यथार्थ अर्थ का अवधारण है अर्थाचार | शब्द अर्थ दोनों का सम्यक् जानपना है उभयाचार | योग्यकाल में जिनश्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ॥ नम्र रूप रह लेश न उद्धत होना ही है विनयाचार । सदा ज्ञान का आराधन स्मरण सहित उपधानाचार ॥ शास्त्रों के पाठी अरु श्रुत का आदर है बहुमानाचार। नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अह्निव है आचार ॥ आठ अंग है यही ज्ञान के इनसे दृढ़ हो. सम्यक् ज्ञान । पाँच भेद है मति श्रुत अवधि मनःपर्यय अरु केवलज्ञान॥ मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक अरु छत्तीस भेद। श्रुत के प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं चउ अनुयोग सु भेद ।। द्वादशांग चौदह पूरब परिकर्म चूलिका प्रकीर्णक । अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेकों हैं सम्यक् ।। अवधिज्ञान त्रय देशावधि परमावधि सर्वावधि जानों। भवप्रत्यय के तीन और गुण प्रत्यय के छह पहिचानों। मनपर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानों। नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथंक मानों ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान जय जय सम्यक् ज्ञान अष्ट अंगों से युक्त मोक्ष सुखकार । लोक में विमल ज्ञान की गूंज रही है जय जयकार ॥ सम्यक् ज्ञान प्राप्त होते ही होता है सम्यक् चारित्र । मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है साधक होता शुद्ध पवित्र ॥ ॐ ह्रीं श्री अष्ट- अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । आशीर्वाद (दोहा) सम्यग्ज्ञान बिना नहीं होता निज का बोध | केवलज्ञान महत्त्व से लेता है यह मोक्ष ॥ , इत्याशीर्वाद करने योग्य कार्य "जिन मन्दिर संसार रूपी रेगिस्तान में कल्पवृक्ष के समान है" "सो जहाँ अरहंतानि का प्रतिबिम्ब है तहाँ नव रूप गर्भित जानना, क्योंकि आचार्य, उपाध्याय व साधु तो अरहंत की पूर्व अवस्थायें हैं अर सिद्ध पहले अरहंत होकर सिद्ध हुए हैं, अरहंत की वाणी सो जिनवचन है और वाणी द्वारा प्रकाशित हुआ. अर्थ (वस्तुस्वरूप) सो जिन धर्म ' है तथा अरहंत का स्वरूप (प्रतिबिम्ब) जहाँ तिष्ठै सो जिनालय है। ऐसे नव देवता रूप भगवान अरहंत के प्रतिबिम्ब का पूजन नित्य ही करना योग्य है । ' " १८ पं. सदा सुखदास जी ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान श्री सम्यक् चारित्र पूजन स्थापना (सोरठा) सम्यक् चारित्र धर्म साम्यभाव मय हो प्रभो। घाति अघाति विनाश कर्म रहित होऊँ विभो ॥ पूर्जे मन वच काय सम्यक् चारित्र धर्म को। नायूँ आठों कर्म नित्य निरंजन पद मिले ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यकचारित्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यकचारित्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (मत्तसवैया ) सम्यक् चारित्र नीर पावन चरणों में भेंट चढ़ाऊँगा। जन्मादि रोग त्रय क्षय करके आनन्दगीत निज़ गाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा | ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् चारित्रमयी चंदन मस्तक पर नाथ लगाऊँगा। इस भवाताप ज्वर की पीड़ा पूरी ही शीघ्र मिटाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा । ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।। अक्षय स्वभाव मेरा अखंड अक्षत अभेद गुणशाली है। संसार समुद्र नाश को तो निज तरणी ही बलशाली है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान । मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक् चारित्रं पुष्प सुरभित निज अंतरंग में लाऊँगा। कामाग्नि बुझाऊँगा तत्क्षण मैं महाशील गुण पाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् चारित्र स्वानुभव रस निर्मित चरु चरण चढ़ाऊँगा। चिर क्षुधारोग को क्षय करके आनंद अतीन्द्रिय पाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्यपामीति स्वाहा । सम्यक् चारित्र दीप लाकर अज्ञान तिमिर विनशाऊँगा। निज ज्ञान चन्द्र गुणमय अनंत निज अंतर में प्रगटाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् चारित्र धूप लेकर मैं आठों कर्म नशाऊँगा। नर्कादिक पशु नर सुगति के सारे ही कष्ट मिटाऊँगा ॥ मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा। दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् चारित्र वृक्ष के फल पाकर मैं शिवपुर जाऊँगा। अविनाशी अजर अमर पद पा मैं महामोक्ष फल पाऊँगा ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 श्री रत्नत्रय विधान मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा । दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक् चारित्र अर्घ्य उत्तम चरणों में नाथ चढ़ाऊँगा । ! पदवी अनर्घ्य पाऊँगा मैं फिर लौट न भव में आऊँगा । मैं स्वपर विवेक पूर्वक प्रभु सम्यक् चारित्र सजाऊँगा । दृढ़ संयम के रथ पर चढ़कर अविरति सम्पूर्ण हटाऊँगा । ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । पंचमहाव्रत संबंधी अर्घ्य 1 ( वीरछंद ) परम अहिंसा व्रत नित पालूँ सर्व जीव रक्षा उर धार । निज स्वभाव में लीन रहूँ प्रभु षट्कायक की दया विचार || दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥१ ॥ ॐ ह्रीं श्री अहिंसामहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । परम सत्य पालूँ स्वामी सर्व असत्य भाव निरवार | हितमित प्रिय वच ही बोलूँ मैं करूँ आत्मा का उद्धार ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री सत्यमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । परम अचौर्य महाव्रत पालूँ ग्रहण न करूँ अदत्तादान | स्वामी की आज्ञा बिन कोई वस्तु न लूँ मैं बन अनजान ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥३ ॥ ॐ ह्रीं श्री अचौर्यमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । परम ब्रह्मचर्य व्रत पालूँ शील स्वगुण निज प्रगट करूँ । अगर काठ की पुतली भी हो तो भी दृष्टि न मलिन करूँ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान ૨૨ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री ब्रह्मचर्यमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 1 अपरिग्रही अनिच्छुक होकर सर्व परिग्रह भाव हरूँ । तिलतुष मात्र न हो ममत्व प्रभु मैं सम्यक् व्यवहार करूँ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री अपरिग्रहमहाव्रतसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा । पंचसमिति संबंधी अर्घ्य ईर्या समिति सदा मैं पालूँ देखभाल कर चलूँ सदा । चार हाथ, जूड़ा प्रमाण भू चरण रखूँ मैं प्रभो सदा ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥१ ॥ ॐ ह्रीं श्री ईर्यासमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । भाषा समिति पूर्णतः पालूँ हित मित प्रिय वच कहूँ सदा । कभी भूलकर भी असत्य वच मुख से निकले नहीं कदा ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीं भाषासमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। समिति एषणा पालूँ स्वामी शुद्धि पूर्वक करूँ अहार । मात्र अल्प भोजन लूँ तनहित करूँ स्वयं का ध्यान अंपार ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥३ ॥ ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिसमन्वित सम्यंंंचारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । समिति आदान निक्षेपण पालूँ धरूँ उठाऊँ वस्तु सदा । मात्र जीव रक्षा विचार हो सावधान मैं रहूँ सदा ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ श्री रत्नत्रय विधान दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥४ ॥ ॐ ह्रीं श्री आदाननिक्षेपणसमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. 'स्वाहा । प्रतिष्ठापना समिति पालकर जीवों की रक्षा कर नाथ । मलमूत्रादिक तन मल त्यागूँ देखभाल कर त्रिभुवन नाथ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री प्रतिष्ठापनसमितिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा । त्रय गुप्ति संबंधी अर्घ्य मनोगुप्ति हो मन चंचलता नाश करूँ निज हित के काज । अन्य विचार न जागे उर में ज्ञान भाव ही हो जिनराज ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री मनोगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । वचन गुप्ति हो सम्यक् प्रभुजी पूर्ण मौन हो हितकारी । लूं तो हितमित प्रिय बोलूँ सब जीवों को सुखकारी ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री वचनगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । काय गुप्ति है जड़ काया की चंचलता मैं नष्ट करूँ । पद्मासन खडगासन आदिक ही आसन उत्कृष्ट धरूँ ॥ दृढ़ सम्यक् चारित्र पालकर करूँ आत्मा का उद्धार । यथाख्यात चारित्र शक्ति से हो जाऊँ भव सागर पार ॥३ ॥ ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिसमन्वित सम्यक्चारित्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान जयमाला ( दोहा ) < बिन सम्यक् चारित्र के, मुक्ति असंभव मान । तेरहविध चारित्र ही, मंगलमय विधान || ( वीरछंद ) निज स्वरूप में रमण सुनिश्चिय दो प्रकार चारित्र व्यवहार । श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ॥ पंच उदम्बर त्रय मकार तज जीवदया अणुव्रत का ज्ञान । देववन्दना जल गालन निशिभोजन त्यागी श्रावक जान ॥ W दर्शन ज्ञान चरित्र ये त्रेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नैष्ठिक साधक तीनों श्रावक के हैं भेद प्रधान ॥ ग्यारह प्रतिमाएँ मैं पालूँ निरतिचार मेरे स्वामी । फिर निर्ग्रन्थ दशा मैं धाऊँ विनय सहित अन्तर्यामी ॥ परम अहिंसा षट्कायक के जीवों की रक्षा करना । परमसत्य है हितमित प्रिय वच सरलसत्य उर में धरना ॥ परम अचौर्य बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । परम शील व्रत पालन करना ब्रह्मचर्य महिमा धरना || अपरिग्रही अनिच्छुक होता अपरिग्रह व्रत उर धरना । पंच महाव्रत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ॥ ईर्या समिति सुप्रासुक भू पर चार हाथ भू लख चलना । भाषा समिति चार विकथाओं से विहीन भाषण करना ॥ श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनुद्देशिक आहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण संयम के उपकरण देख धरना ॥ प्रतिष्ठापना समिति देह के मल भू देख त्याग करना । पंच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ॥ २४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री रत्नत्रय विधान मनोगुप्ति है सब विभाव भावों का हो मन से परिहार।। वचनगुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन संवार ॥ काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भावमय 'कायोत्सर्ग। तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते हैं शिवमय अपवर्ग ॥ षट् आवश्यक द्वादश तप पंचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पंचाचार विनय आराधन द्वादश व्रत आदिक सुखतम ॥ अट्ठाईस मूलगुण धरकर सप्त भयों से रहना दूर। निजस्वभाव आश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर।। निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण॥ श्रेष्ठधर्म है श्रेष्ठ मार्ग है श्रेष्ठ साधु पद शिवसुखकार। सम्यक् चारित्र बिना न कोई हो सकता भवसागर पार ।। तीर्थंकरभी धारण करते हैं सम्यक्चारित्र महान। चारित्तं खलु धम्मो द्वारा पा लेते हैं पद निर्वाण ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधअंगयुत सम्यक्चारित्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। आशीर्वाद (दोहा) '. अविरति पूरी क्षय करूँ, धर सम्यक् चारित्र । संयम के द्वारा बनूं, पावन परम पवित्र ॥ इत्याशीर्वाद Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नत्रय विधान ૨૬ - अंतिम महाऱ्या (दोहा) महार्घ्य अर्पण करूँ, रत्नत्रय अधिराज। रत्नत्रय धारण करूँ, पाऊँ निजपद राज ॥ (दिग्वधू) जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में। कितने भव बीत चुके संकल्प-विकल्पों में ॥ उड़-उड़ कर यह चेतन गति-गति में जाता है। रागों में लिप्त सदा भव-भव दुःख पाता है। पल भर को भी न कभी निज आतंम ध्याता है। निज-तो. न सुहाता है पर ही मन भाता है || यह जीवन बीत रहा झूठे संकल्पों में। जिया कब तक उलझोगा संसार विकल्पों में ॥ निज आत्मस्वरूप लखें तत्त्वों का कर निर्णय । मिथ्यात्व छूट जाए समकित प्रगटे 'निजमय ॥ निज परिणति रमण करे हो निश्चय रत्नत्रय । निर्वाण मिले निश्चित छूटे यह भव दुःखमय ॥ सुख ज्ञान अनंत मिले चिन्मय की गल्पों में। जिया क बतक उलझोगा संसार विकल्पों में ॥ शुभ-अशुभ विभाव तजे है हे य अरे आस्रव । संवर का साधन ले चेतन का ले अनुभव ।। शुद्धात्मा का चिन्तन आनंद अतुल अनुभव | कर्मों की पगध्वनि का मिट जायेगा कलरव ॥ तू सिद्ध स्वयं होगा पुरुषार्थ स्वकल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७ श्री रत्नत्रय विधान यदि अवसर चूका तो भव-भव पछताएगा। फिर काल अनंत अरे दुःख का घन छाएगा ॥ यह नर भव कठिन महा किस गति में जाएगा। नर भव पाया भी तो जिनश्रुत ना पाएगा | अनगिनती जन्मों में अनगिनती कल्पों में। जिया कब तक उलझेगा संसार विकल्पों में | ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्रस्वरूप रत्नत्रयधर्माय महालूँ | निर्वपामीति स्वाहा। महाजयमाला (सोरठा ) सकल जगत विख्यात है, रत्नत्रय का नाम। कर सकती कल्याण निज, यही औषधि श्रेष्ठ ॥ (मानव ) रत्नत्रय विधान करके रत्नत्रय को कर वंदन । रत्नत्रय उर में धारूँ क्षय कर दूँ भव के बंधन ॥ चैतन्यतत्त्व के भीतर परिपूर्ण ज्ञान का सागर । निजपरिणति प्रमुदित हो तो भर लो निज अनुभव गागर॥ अपने स्वभाव की महिमा को थोड़ा सा तो जानो। तुम एक त्रिकालीध्रुव हो अपने को तो पहिचानो ॥ भव-भव में भटके हो तुम चारों गतियों में जाकर। पशुगति में भी जन्में हो तुम ग्रीवक तक से आकर॥ निज बोधिप्राप्त करने को यह नरभव पाया है। अपने कल्याण हेतु ही यह अवसर फिर आया है। अब रचा हृदय रांगोली समकित का स्वागत कर लो। मिथ्यात्व मोह की सारी कालुषता अब तो हर लो॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री रत्नत्रय विधान २८ - समकित जब पाया है तो संयम के गीत सुनाओ। हो गए स्वरूपाचरणी तो निज से प्रीत बढ़ाओ ॥ निष्कंटकमार्ग मिला है इस पर ही चलते रहना। उपसर्ग परीषह आएँ तो हँसकर उनको सहना ॥ तुम चलित न होना पलभर अविचल स्वभाव से चेतन । विश्राम पूर्ण पाना है तो हरना भव के बंधन ॥ सम्यक् स्वभाव के निर्मल नित अर्घ्य चढ़ाऊँ स्वामी। पदवी अनर्घ्य पाऊँ मैं हो जाऊँ अन्तर्यामी ॥ (वीरछन्द) रत्नत्रयमंडल विधान कर हुआ हृदय में बहुआनंद । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय पाऊँगा निज परमानंद ॥ रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्रस्वरूप रत्नत्रयधर्माय महाजयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। समुच्चय महाऱ्या (ताटंक निज भावों का महार्घ्य ले पाँचों परमेष्ठी ध्याऊँ। जिनवाणी जिनधर्म शरण पा देव-शास्त्र-गुरु उर लाऊँ॥ तीसचौबीसी बीसजिनेश्वर कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य ध्याऊँ। सर्व सिद्ध प्रभु पंचमेरु नन्दीश्वर गणधर गुण गाऊँ॥ सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय नवं सुदेव पाऊँ। चौबीसों जिन भूत भविष्यत वर्तमान जिनवर ध्याऊँ ॥ तीन लोक के सर्व बिम्ब जिन वन्दूँ जिनवर गुण गाऊँ। अविनाशी अनर्घ्य पद पाऊँ शुद्ध आत्मगुण प्रगटाऊँ ॥ न स्वाहा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ . श्री रत्नत्रय विधान (दोहा) . महार्घ्य अर्पण करूँ, पूर्ण विनय से देव । आप कृपा से प्राप्त हो, परम शान्ति स्वयमेव ॥. ॐ ह्रीं श्री सर्वपूज्यपदेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। शान्तिपाठ (गीतिका.) सुख शान्ति पाने के लिए पुरुषार्थ मैंने प्रभु किया। श्रेष्ठ रत्नत्रयविधान महान प्रभु मैंने किया।। अब नहीं चिन्ता मुझे है कभी होऊँगा अशान्त । आज मैंने स्वतः पाया ज्ञान का सागर प्रशान्त ॥ विश्व के प्राणी सभी चिरशान्ति पायें हे प्रभो। मूलभूत निजात्मा का ज्ञान ही पायें विभो ॥ मूल भूल विनष्ट करके नाथ मैं ज्ञानी बनूँ। भक्ति रत्नत्रय हृदय हो पूर्णतः ध्यानी बनूँ ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् नौ बार णमोकार मंत्र द्वारा पंच परमेष्ठी का स्मरण । क्षमापना पाठ ( दोहा ) भूल चूक कर दो क्षमा, हे त्रिभुवन के नाथ । आप कृपा से हे प्रभो, मैं भी बनूँ स्वनाथ॥ अल्प नहीं है हे प्रभो, पूजन विधि का ज्ञान | अपना सेवक जानकर, क्षमा करो भगवान || पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् - Page #33 --------------------------------------------------------------------------  Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लायतन जियालय MANGALAYATAN UNIVERSITY प्रकाशक: तीर्थधाम मङ्गलायतन, श्री आदिनाथ-कुन्दकुन्द-कहान दिगम्बर जैन ट्रस्ट अलीगढ़-आगरा मार्ग, सासनी-204216 (भारत)