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________________ श्री रत्नत्रय विधान 'सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री. सम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् पुष्प शील गुण भूषित तुम्हें चढ़ाऊँ हे स्वामी। कामबाण पीड़ा को नायूँ पद निष्काम वरूँ नामी ॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् अनुभव रस चरु लाऊँ क्षुधा व्याधि नाथू स्वामी। चिर अतृप्ति को नष्ट करूँ मैं परम तृप्ति पाऊँ नामी॥ सम्यक दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् दीप प्रभा से मिथ्याभ्रम तम चूर्ण करूँ नामी। मोह तिमिर अज्ञान विपर्यय संशय सब नारों स्वामी॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् धूप चढ़ाऊँ पावन शुक्ल ध्यान वाली नामी। अष्टकर्म अरिध्वंस करूँ मैं कर्म रहित होऊँ स्वामी ॥ सम्यक् दर्शन की पूजन का भाव हृदय में आया है। समकित की महिमा पाने को गुरु ने मुझे जगाया है॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। शुद्ध भाव फल महामोक्ष सुख नित्य निरंजन दो स्वामी। यही प्राप्त करना है मुझको विनय सुनो अन्तर्यामी॥
SR No.007157
Book TitleRatnatray Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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