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श्री रत्नत्रय विधान
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मैं मति ज्ञान प्राप्त कर स्वामी सम्यक् ज्ञान पूर्ण पाऊँ। कालाचार अंग पालन कर समयसार मय हो जाऊँ ।। . सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान |
रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री कालाचारचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
मैं श्रुतज्ञान पूर्णतः पालुं सम्यक् ज्ञानी हो जाऊँ । विनयाचार अंग मैं पालूँ पूर्ण ज्ञान वैभव पाऊँ ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान ।
रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री विनयाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अवधि ज्ञान पाऊँ प्रभु सच्चा सम्यक् ज्ञानी हो जाऊँ। उपधानाचारी बनकर मैं ज्ञान स्वनिधि निज प्रगटाऊँ॥ सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री उपधानाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
मनःपर्यय ज्ञानी हो जाऊँ हो जाए फिर पूरा ज्ञान । बहुमानाचार अंग युतः हो जाऊँ मैं ज्ञान प्रधान ॥
सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान | 15 रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री बहुमानाचार-अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
के वलज्ञान पूर्ण प्रगटाऊँ प्रभु सर्वज्ञ दशा पाऊँ । मैं आचार अनि पालूँ परम सौख्यपति बन जाऊँ । सम्यक् ज्ञान परम पवित्र पा पाऊँगा मैं केवल ज्ञान ।
रत्नत्रय की महिमा पाऊँ पाऊँगा निज पद निर्वाण ||८|| ॐ ह्रीं श्री अनिवाचार अंगयुत सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।